#नीरज त्यागीग़ाज़ियाबाद ( उत्तर प्रदेश )
Read Time53 Second
मैं अपने सपनों से खुद ही हार गया।
तेज चलने का हुनर.मुझे खुद ही मार गया।।
दौड़ता रहा सुबह से शाम तरक्की की दौड़ में,
गिरा जब मैं थककर पता चला की रात हो गई।
मुझको गिरकर उठने का भी हुनर याद था।
क्या करूँ शरीर की थकन मेरे हुनर को खा गई।।
मेरा मांझी , मेरी नैया सब साथ ही तो थे मेरे,
क्या करूँ मेरी नैया को तुफानो में लहर खा गई।
हर कोई किनारा ढूंढता फिर रहा है समंदर में,
क्या करूँ गर मेरी नैया किनारों पर डगमगा गई।
आजकल हुआ है अंत सपनो का कुछ इस कदर,
मेरे सपनों को भी मेरी थकन के आगे मौत आ गई।
Average Rating
5 Star
0%
4 Star
0%
3 Star
0%
2 Star
0%
1 Star
0%
पसंदीदा साहित्य
-
July 18, 2021
रोकना होंगे मानवता के विरुध्द शक्ति के प्रयोग
-
April 11, 2019
नया वर्ष
-
December 16, 2017
जान बची-लाखों पाए
-
May 27, 2017
बेटियां तो पहचान होती है
-
June 21, 2018
हिन्दी गद्य के रास्ते भी होगा हिन्दी लेखकों का विकास