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*आर्त स्वर नेपथ्य में*
*वेदना भरपूर है!*
रोज बढ़ती सड़क जैसी,
खुदी-उखड़ी भूख को,
तक रहे सब धरा बनकर,
प्राण! मन के मूक हो!
कण्ठ में आकर धँसी पर,
पास होकर दूर है!
वाचाल! चालें भयंकर,
उलझ जाते सरल मन!
जाल के दाने उठा, खग!
फँस रहे हैं रात-दिन।
दीनता मुस्कान देती,
सिसकियों का नूर है!
दुःख, निराशा, भग्न आशा,
सह रहीं हैं पीढियाँ,
भूख! कातर ताकती हो,
मन्दिरों की सीढ़ियाँ !
मनुजता से मनुज, मरता!
क्या गजब दस्तूर है!
#गणतंत्र ओजस्वी
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