वह आखिरी चिठ्ठी

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sadhana mishra
दिन के बारह बजते ही रत्तो बेचैन हो जाती थी। तुरंत अपने बक्से की तरफ झपटती थी और एक चिठ्ठी निकाल कर अमरैया की तरफ दौड़ पड़ती थी।
आज भी बारह बजते ही उसने ऐसा ही किया। आंगन में  बैठी माँ उसे देखकर भी अनजान बन गई और रत्तो के दरवाजे से बाहर जाते ही अपने पल्लू से अपनी आंखों में उमड़ते आंसुओं को पोंछने लगी।
यही वह समय होता था जब डाकिया अपनी साइकिल पर चिठ्ठीयों से भरा बस्ता रखकर अमरैया के सामने की पगडंडी से गुजरता था।
 रत्तो रोज आशा भरी नजरों से डाकिया बाबू को इस उम्मीद से देखती थी कि हो सकता है कि कभी चाचा उसे कोई चिठ्ठी पकड़ा कर कहें कि बिटिया यह लो, आज तो तुम्हारे नाम पवन बाबू की चिठ्ठी आई है।
वह दौर गुजरे साल से ऊपर बीत चुका था जब यही चाचा हर हफ्ते उसे एक चिठ्ठी लाकर देते थे और बड़े प्यार से पुकारते थे।
 रत्तो बिटिया, दामाद बाबू का सनेसा आ गया है तैयारी कर लो ससुराल जाने की।
और फिर माँ से हँसते हुए कहते थे।
बड़ी भाग्यशाली हो भौजी, हीरा जैसे दामाद खोज कर लाई हो। कितना प्यार करते हैं हमारी बिटिया से।
रत्तो के गाल यह बात सुनते ही गुलनार हो जाते थे। हाथ से ओढनी का पल्लू पकड़ शरमाई-शरमाई सी वहां से भाग कर कोठरी में  समा जाती थी।
पांचवी तक पढ़ी थी रत्तो, सो चिठ्ठी पढने में बहुत दिक्कत नहीं  होती थी। जोड़ कर पति की वह प्रेम की पाती को पढ़ लेती थी।
उफ……..
कैसी-कैसी प्यार की शायरी से भरी होती थी वे चिठ्ठीयाँ। लगता था कि पवन बाबू ने दिल ही चीर कर रख दिया है सामने।
 न जाने कितने वादे साथ जीने मरने के, जाने प्यार की कितनी कसमों से भरी रहती थीं वे बतियाँ।
सदा लिखते थे कि तुम मेरे दिल की रानी हो।सात जन्मों का नाता है मेरा तुम्हारा। मैं तो चौदह जन्मों तक तुम्हारा ही रहूँगा रत्तो। बिना तुम्हारे मेरा कुछ नहीं ।
उन्हीं चिठ्ठीयों को छाती से लगाए सोती थी रत्तो।
उन्हीं चिठ्ठीयों को पकड़ रात भर रोती थी रत्तो।
 पति के साथ बिताए वही दिन तो बेचैन कर रहें  हैं रत्तो के आज को।
आज आंखों से आँसुओं की निर्झर नदी सैलाब बनकर बह रही है।
कभी इन्हीं चिठ्ठीयों को सखियों संग बैठ पढ़ती थी रत्तो। उनकी छेड़खानिओं का मजा लेती थी रत्तो।
 वे पढ़-पढ़कर कितनी चुटकियाँ लेती थी चिठ्ठी में  लिखी शायरिओं पर।
जितनी चुटकी उतने ही गाल दहकते थे रत्तो के, आंखें लज्जा से झुक जाती थीं पर मन ही मन मुस्काती ही रहती थी रत्तो।
अब डाकिया चाचा का इंतजार वह रोज करती थी बारह बजे। चाचा भी जानते थे कि रत्तो किस उम्मीद पर बैठी रहती है रोज।
पर अब वह आवाज नहीं  लगाते थे कि बिटिया तुम्हारी चिठ्ठी आई है पवन बाबू की। वह उसी पगडंडी से रोज गुजरते थे दिल पर बोझ लेकर।
भरसक प्रयास करते थे कि रत्तो की आंखों की उम्मीद से उनकी आंखे न टकरा जायें।
वह सिर नीचा किए जल्दी से जल्दी वहां  से गुजरने की कोशिश करते थे।
 जानते थे कि जब तक वे दिखेंगे तब तक रत्तो की आंखे उनका पीछा करेंगी। कितनी बार लिख चुके हैं महकमें में कि यहाँ से उनका तबादला करवा दें। पर न तो तबादला ही हो रहा है
और न रत्तो की आंखों की वीरानी झेली जा रही थी।
और यहाँ बैठकर रत्तो तो अपने ब्याह की यादों के समुंदर में  डूबी जा रही थी रोज की तरह।
पांचवी में  पढ़ती थी रत्तो जब बापू ने माँ को खुश खबरी सुनाई थीं कि शहर में रहने वाले मनोहरलाल श्रीवास्तव जी के सुपुत्र चिरंजीव पवन कुमार के साथ रत्तो का ब्याह
तय हो गया है।
पवन कुमार उस समय दसवीं में  पढ़ते थे। और दो माह बाद रत्तो का ब्याह हो गया। रत्तो बहुत  खुश थी अपने ब्याह पर, नये-नये गहने,नये-नये कपड़े। जाने कितनी मिठाई छुप-छुप कर खाई थी सखियों संग।
कोई हिसाब नहीं ।
गौने की रस्म तीसरे साल की ठहरी और वह नन्हीं सी रत्तो,  श्रीमति रत्तो बन गईं ।
ब्याह के बाद माँ  ने पढ़ाई छुडवा दी, यह कहते हुए कि अब ब्याह हो गया है तो गृहस्थी के काम सीखना  है। ससुराल में यही विद्या काम आयेगी।
तीसरे बरस गौना हुआ। बांका छैल छबीला पति पाकर रत्तो निहाल हो गई।
उस पर पवन का इतना प्यार कि वह बलि -बलि जाती थी। पवन भी सुगढ़, अपूर्व सुंदरी पत्नी के रंग में  रंग गया।
बालक वर, बालिका वधू ।
पढ़ाई- लिखाई छोड़ कर पवन बाबू दिन भर पत्नी के आगे पीछे डोलने लगा। मूंछ की रेख तो अभी निकलनी ही शुरू हुई  थी।
 दोनों ही नासमझी के उस दौर में थे कि
कुछ सुध-बुध नहीं  रही। बस रत्तो दिन भर ठुमकती और पवन बाबू निहाल होते रहते।
माँ की आँखों से बचकर सारे दिन पवन बाबू का वह प्यार  का गागर ही तो मन में  फाँस की तरह चुभता है।
यादों की वह गठरी दिल से निकलने का नाम ही नहीं  लेती है।
वह सोने से दिन थे, चाँदी सी रातें थी।जब दो नौजवान होती धड़कने किसी बंधन को नहीं मानना चाहती थी।
माँ की सतत निगरानी फेल हो जाती थी। दोनों हर मिले मौके में दिन -रात एक दूसरे में खोए रहते थे।
दिन -रात प्रेम के झूलों की पेंग भरने का नतीजा यह निकला कि  पवन बाबू बारहवीं की परीक्षा में फेल हो गये।
मनोहरलाल श्रीवास्तव जी को लगने लगा कि नासमझ बहू के रहते पवन बाबू की पढ़ाई लिखाई
तो चौपट हो जायेगी। तुरंत रत्तो के बापू को बुलाया गया। सब बातें  समझाई गई,  फिर कहा गया कि पढाई पूरी होने तक रत्तो मायके में ही रहेगी।
उसके उपरांत उसे ससुराल बुला लिया जायेगा।
दोनों नवागंतुक प्रेम के दीवानों पर यह फैसला गाज बनकर गिरा। न तो किसी ने ब्याह में  मर्जी पूछी और न दोनों को दूर करते समय।
यही दौर था जब पवन बाबू प्रेम रस की धार बहाते हुई चिठ्ठी लिखा करते थे। पहले हर हफ्ते चिठ्ठी आती रही।
फिर महीने में एक बार, फिर छठे-छमाहे।
पाँच साल बाद पवन बाबू परीक्षा पास करते ही आफीसर की नौकरी पा गये। रत्तो की आंखों में सुनहरे सपने सजने लगे कि अब वह पति के पास होगी। प्यार का सुनहरा संसार बसेगा कि वह गाज फिर गिरा जिसकी कल्पना भी रत्तो ने नहीं  की थी।
चिठ्ठीयों के बढते अंतराल को वह पवन बाबू की बढ़ती व्यस्तता को मानती रही। वह यह नहीं समझ पाई कि यह दूरियां अब मन की दूरियों में  तब्दील हो चुकी है।
आज उस आखिरी चिठ्ठी को आए छः माह गुजर गये हैं।
 जिसमें पवन बाबू ने लिखा है कि अब वे आफीसर की कैटेगरी में  हैं और अनपढ़ पत्नी के साथ उनका गुजर-बसर नही हो सकता है । अतः वे तलाक चाहते हैं।
उनकी कोई गलती नहीं थी ।
गलती उनके  माता-पिताजी की है कि कच्ची उमर में उनका ब्याह हो गया था। और अगर रत्तो चाहे तो उनके साथ रह सकती है। वे गुजर-बसर के लिए  हर महीने  कुछ पैसे भेजते रहेंगे।
रत्तो के प्रेम के घरौंदे की नींव इतनी कच्ची निकली कि किसी सुजाता वर्मा ने उसकी जगह पवन बाबू के जीवन में  ले लिया जो उनके ही साथ पढ़ी थी और साथ ही नौकरी कर रही थी।
पर टूटे हुए सपनों के साथ रत्तो का रिश्ता और मजबूत होता जा रहा है। वह हर दिन उस आखिरी चिठ्ठी के साथ
अमरैया में इंतजार करती है कि डाकिया चाचा कहें कि रत्तो बिटिया,  पवन बाबू का सनेसा आ गया है। अपने ससुराल जाने की तैयारी करो।
रत्तो जानती थी कि यह मृग-मरीचिका का भवँर जाल है।
जिससे वह कभी भी नहीं उबरेगी। यह वह प्यास है जो अब कभी बुझेगी नहीं ।
पर वह एक बार वह आफीसर पवन बाबू से पूछना चाहती थी कि अगर यह शादी उनकी गलती नहीं  है तो
क्या यह शादी रत्तो की गलती है ?
और अगर उसकी भी गलती नहीं है तो सजा की हकदार
सिर्फ वही क्यों है ?
#साधना मिश्रा’समिश्रा’
नाम- साधना मिश्रा साहित्यिक उपनाम-समिश्रा जन्मतिथि-2/7/1963 वर्तमान पता- राज्य-छत्तीसगढ़ शहर-भिलाई शिक्षा-स्नातकोत्तर कार्यक्षेत्र- गृहिणी विधा -कहानी, लघुकथा, व्यंग्य, आलेख तथा काव्य 

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।