कुशवाहा कान्त : एक जासूस की मौत – मिस्ट्री

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avdhesh
साहित्यिक उपज की दृष्टि से काशी प्राचीन काल से उत्तर प्रदेश की सर्वाधिक उर्वर भूमि है। इस भूमि पर भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के साहित्यिक मशाल को प्रसाद, प्रेमचंद और रामचन्द्र शुक्ल के साथ ही जलाए रखा एक चिर युवा साहित्यकार ने जिसका जन्म काशी के निकट मिर्जापुर में हुआ था किन्तु कर्मस्थली पावन काशी रही। अंग्रेजों की हुकूमत में जनमानस गुलामी के कारण पहले से ही सहमा हुआ था और ऊपर से दिसम्बर की हाड़ कपकपाने वाली शीतलहर का प्रकोप। 9 दिसम्बर सन् 1918 को मिर्जापुर के महुवरिया में बाबू केदारनाथ को एक ऐसे पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई जिसके बारे में कोई नहीं जानता था कि एक दिन यह बालक साहित्य को नई दिशा व नया आयाम देगा।
जी हाँ, शिशु कुशवाहा कान्त के पाँव पालने में ही तरुणायी का भान कराने लगे थे। उस वक्त देवकी नन्दन खत्री के तिलस्मी उपन्यास का खुमार छाया हुआ था। जब ये नौवीं कक्षा में पढ़ रहे थे तो इन्होंने ‘खून का प्यासा’ जासूसी उपन्यास लिखा। जल्दी ही ये कुँवर कान्ता प्रसाद के नाम से ख्याति अर्जित करने लगे थे। उस समय साहित्यिक आकाश में ऐसे दो जगमग सितारे भी थे जिनसे इनका सम्बंध प्रगाढ़ किन्तु अदृश्य व अभौतिक था। ये थे श्रद्धेय त्रिलोचन शास्त्री व श्रद्धेय बेचन शर्मा ‘उग्र’। उग्र जी और कान्त (कुशवाहा कान्त) में गुरु द्रोण व एकलव्य सा सम्बंध था। उग्र जी का आशीष पाने के लिए कान्त जी आजीवन व्याकुल रहे पर आशीष मिला मरणोपरान्त।
25 वर्ष की आयु से उपन्यास और नाटक लेखन की दुनिया में पूर्ण मनोयोग से पदार्पण कर चुके थे कुशवाहा कान्त जी। अपने समय के प्रतिनिधि लेखक का दर्जा स्वयं ही इनको मिल जाता है क्योंकि सर्वाधिक पाठक इनके पास थे। इनके उपन्यासों का पाठक वर्ग बेसब्री से इंतजार करता था इनकी कृतियों का। रुमानियत, जासूसी और राष्ट्रीयता के त्रिकोण के अन्त:क्षेत्र में इनकी लेखनी बाखूबी दौड़ती थी। जो इनको पढ़ता, इनका होकर रह जाता। उस समय एक कठोर भ्रामक अवधारणा कुछ तथाकथित प्रबुद्ध लोगों के मन में भी जगह बना ली थी कि कुशवाहा कान्त ‘सेक्स’ परोसता है। यह और अधिक हास्यास्पद तब हो जाता जब एक सवाल के जवाब में आरोप लगाने वालों ने उनकी पुस्तक न सिर्फ पढ़ने बल्कि छूने से भी परहेज दिखाया। अर्थात् अफवाहों की बिना पर एक वर्ग उनसे घृणा का प्रदर्शन करता था।
महाकवि मोची के नाम से भी इनके कई नाटक और कवितायें प्रकाशित हुई थीं। इनकी अल्पायु जीवन की लोकप्रियता को गुलशन नन्दा के समकक्ष देखा जा सकता है। 1950 के दशक के बेस्ट सेलर लेखक के रूप में इनको देखा जाता था। मिर्जापुर से वाराणसी आने के उपरान्त इन्होंने चिनगारी प्रेस की स्थापना की जिसमें इनकी सर्वाधिक पुस्तकें छपीं। इन्होने तीन पत्रिकाओं का संपादन भी किया जो चिनगारी, नागिन और बिजली नाम से थीं।
बचपन से ही लेखन में रुचि होने के कारण किसी और व्यवसाय में इनका मन न लगा। तीन पुत्र और दो पुत्रियों के पिता होने के बावजूद भी घर गृहस्थी से सदैव अपने को दूर रखते थे। इनके छोटे भाई जयन्त कुशवाहा पर ही परिवार के भरण पोषण का दायित्व था। चिनगारी की स्थापना के साथ इनके भाई भी वाराणसी में आकर इनके साथ ही रहने लगे थे।
ये आकर्षक व्यक्तित्व के धनी थे। फिल्मस्टार जीवन से इनकी घनिष्ठता थी। इनको बहुतों का साथ मिला और साथ ही साथियों से धोखा भी। हर बार धोखा खाकर पहले से अधिक मनोयोग से लेखन में लग जाते। तकरीबन आठ वर्षीय लेखन में लगभग 30 उपन्यासों, कई नाटकों, दर्जनों कविताओं और तीन – तीन पत्रिकाओं का संपादन इनके विराट व्यक्तित्व का सूचक है। कुछ वर्षों के लिए सेना में भी भर्ती हुए थे और वहीं से राष्ट्रीयता की भावना लाये जो आजीवन लेखनी की रोशनाई बनी रही। अपने सहयोगियों और प्रेस कर्मचारियों के प्रति सदैव मित्रवत व्यवहार रखना इनकी आदत में शामिल था। जीवन के तमाम उतार चढ़ाव में सदैव अडिग होकर लेखन द्वारा समाज को जागृत करते रहे। इनकी प्रमुख कृतियाँ निम्नलिखित हैं-
लाल – रेखा, पपिहरा, पारस, परदेसी, विद्रोही सुभाष, नागिन, मदभरे नैयना, आहुति, अकेला, बसेरा, कुमकुम, मंजिल, नीलम, पागल, जलन, लवंग, निर्मोही, अपना – पराया, भँवरा, लाल किले की ओर, कैसे कहूँ, काला भूत, पराजिता, उड़ते – उड़ते, गोल निशान, रक्त मंदिर, दानव देश, हमारी गलियाँ, जवानी के दिन और उसके साजन आदि।
रुमानियत के इस सर्जनकर्त्ता के जीवन में रुमानियत काली निशा बनकर आई। कलाकारों में विवाहेतर लगाव अक्सर देखा जाता रहा है। कोई भौतिक रूप में तो कोई भावनात्मक जुड़ाव के रूप में। कवि घनानन्द का ‘सुजान’ के प्रति लगाव जग जाहिर था। महादेवी वर्मा भी किसी अपरिभाषित ‘साथी’ के प्रति आसक्त थीं। महाकवि कालिदास पर भी ऐसे आक्षेप लगे थे। इस प्रेम परम्परा से रुमानियत का यह कलमकार भला कैसे बच सकता था! इनके एक सहयोगी मधुर की विवाहिता बहन से इनको प्यार हो गया। बिहार की रहने वाली उस औरत का नाम नारायणी था। यह बात ज्यादा दिन तक छुप न सकी और जमाना हो गया दुश्मन। एक तरफ इनका अनुज जयन्त कुशवाहा इस सम्बंध को अनैतिक व असामाजिक मानकर इनका असहयोगी हो गया तो दूसरी तरफ उसका पति ब्रज कुमार शास्त्री सौदागिरी पर उतर आया। प्यार के इस ज्वार – भाटे में चिनगारी बुझ तो नहीं पाई मगर झंझावातों से गुजरती रही। कान्त जी की प्रेमिका का पति प्रेमी – प्रेमिका के बीच से हटने के लिए पाँच हजार रुपये पर सौदा तय किया था। कान्त जी सहर्ष तैयार भी थे और किसी प्रकाशक से पैसों का इंतजाम भी करने में उद्यत थे, मगर विधि को कुछ और ही मंजूर था।
29 फरवरी 1952 को समस्त काशी मस्ती के महापर्व होली के स्वागत में लगा था। कान्त जी को किसी का फोन आया और वे चल पड़े मिलने…….। कुछ ही समय बाद एक रिक्शे पर वे जीवन और मृत्यु से संघर्ष करते हुए वापस आए। आनन – फानन में उन्हें अस्पताल में भरती कराया गया। लोगों द्वारा पता चला कि किसी ने उनपर छुरे से कई जानलेवा हमला किया था। लगातार असह्य पीड़ा का दौर चलता रहा। परिजनों और मित्रों का काफिला आता और देखकर चला जाता। मुश्किल से एक दर्जन लोग थे जो पल – प्रतिपल उनके साथ दु:ख के साक्षी रहे। लाख पूछने के बाद भी वे हमले की घटना से पर्दा उठाने को तैयार नहीं हुए। संदेह की सूई प्राय: ब्रजकुमार शास्त्री के इर्द गिर्द घूमती है किन्तु शास्त्री जैसा लालची व्यक्ति सोने का अंडा देने वाली मुर्गी को हलाल नहीं कर सकता बल्कि बार बार लालच पूर्ति कराना चाहेगा। कान्त जी की तूफान की तरह बढ़ती लोकप्रियता से बहुत सारे साहित्यिक प्रतिद्वन्दी पैदा हो गए थे जो लेखनी के बल पर कान्त जी के समक्ष टिकने में सक्षम नहीं होते, रास्ते से हटाकर आगे बढ़ सकते थे। उनके कई साथी जो उनसे दूर हटकर उनके कट्टर विरोधियों के खेमें में शामिल हो चुके थे उनके पास भी पर्याप्त कारण था कान्त जी को रास्ते से हटाने का। पारिवारिक मर्यादा पर दाग लग रहा था, ऐसे में किसी परिजन की साजिश से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। ये सारी सम्भावनाएँ मात्र कयास बनकर रह गईं क्योंकि कान्त जी सब कुछ हृदय में दफ़न किए रहे। अन्तत: 11 मार्च 1952 को होलिका दहन की कालरात्रि को साहित्य का महज 33 वर्षीय महाध्रुवतारा सदा के लिए सो गया।
कुशवाहा कान्त के महाप्रयाण से उनका भौतिक शरीर समाप्त हो गया किन्तु उनकी लोकप्रियता  और कृतियों की माँग बढ़ती गई। नक्कालों ने उनके नाम पर एक दो नहीं बल्कि पाँच – पाँच उपन्यासों को बाजार में उतार दिया। तथाकथित सम्भ्रान्त पाठक जो अब तक उनके घोर आलोचक ही नहीं अपितु निंदक भी थे, स्वत: शर्मसार होकर पश्चाताप करने लगे। पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ जी के हृदय में वात्सल्य उमड़ आया। अभिन्न लाल – रेखा के प्रेम को राष्ट्र के नाम कुर्बान करने वाला यह लेखक युवा पीढ़ी का पथ प्रदर्शक और प्रतिनिधि भी था। साहित्यकार कहलाने की अतृप्त लालसा लिए अकाल मृत्यु का वरण करने वाला यह युवा लेखक नवीन पथ के प्रणेता के रूप में सदैव याद किया जाएगा और याद की जाएगी अनसुलझी मौत मिस्ट्री।
(संदर्भ : उनके सहयोगी, सहकर्मी और मित्र ज्वाला प्रसाद केशर के संस्मरण “कुशवाहा कान्त मेरी दृष्टि में”)
परिचय
नाम : अवधेश कुमार विक्रम शाह
साहित्यिक नाम : ‘अवध’
पिता का नाम : स्व० शिवकुमार सिंह
माता का नाम : श्रीमती अतरवासी देवी
स्थाई पता :  चन्दौली, उत्तर प्रदेश
 
जन्मतिथि : पन्द्रह जनवरी सन् उन्नीस सौ चौहत्तर
शिक्षा : स्नातकोत्तर (हिन्दी व अर्थशास्त्र), बी. एड., बी. टेक (सिविल), पत्रकारिता व इलेक्ट्रीकल डिप्लोमा
व्यवसाय : सिविल इंजीनियर, मेघालय में
प्रसारण – ऑल इंडिया रेडियो द्वारा काव्य पाठ व परिचर्चा
दूरदर्शन गुवाहाटी द्वारा काव्यपाठ
अध्यक्ष (वाट्सएप्प ग्रुप): नूतन साहित्य कुंज, अवध – मगध साहित्य
प्रभारी : नारायणी साहि० अकादमी, मेघालय
सदस्य : पूर्वासा हिन्दी अकादमी
संपादन : साहित्य धरोहर, पर्यावरण, सावन के झूले, कुंज निनाद आदि
समीक्षा – दो दर्जन से अधिक पुस्तकें
भूमिका लेखन – तकरीबन एक दर्जन पुस्तकों की
साक्षात्कार – श्रीमती वाणी बरठाकुर विभा, श्रीमती पिंकी पारुथी, श्रीमती आभा दुबे एवं सुश्री शैल श्लेषा द्वारा
शोध परक लेख : पूर्वोत्तर में हिन्दी की बढ़ती लोकप्रियता
भारत की स्वाधीनता भ्रमजाल ही तो है
प्रकाशित साझा संग्रह : लुढ़कती लेखनी, कवियों की मधुशाला, नूर ए ग़ज़ल, सखी साहित्य, कुंज निनाद आदि
प्रकाशनाधीन साझा संग्रह : आधा दर्जन
सम्मान : विभिन्न साहित्य संस्थानों द्वारा प्राप्त
प्रकाशन : विविध पत्र – पत्रिकाओं में अनवरत जारी
सृजन विधा : गद्य व काव्य की समस्त प्रचलित विधायें
उद्देश्य : रामराज्य की स्थापना हेतु जन जागरण 
हिन्दी भाषा एवं साहित्य के प्रति जन मानस में अनुराग व सम्मान जगाना
पूर्वोत्तर व दक्षिण भारत में हिन्दी को सम्पर्क भाषा से जन भाषा बनाना
 
तमस रात्रि को भेदकर, उगता है आदित्य |
सहित भाव जो भर सके, वही सत्य साहित्य ||

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

आपका जन्म 29 अप्रैल 1989 को सेंधवा, मध्यप्रदेश में पिता श्री सुरेश जैन व माता श्रीमती शोभा जैन के घर हुआ। आपका पैतृक घर धार जिले की कुक्षी तहसील में है। आप कम्प्यूटर साइंस विषय से बैचलर ऑफ़ इंजीनियरिंग (बीई-कम्प्यूटर साइंस) में स्नातक होने के साथ आपने एमबीए किया तथा एम.जे. एम सी की पढ़ाई भी की। उसके बाद ‘भारतीय पत्रकारिता और वैश्विक चुनौतियाँ’ विषय पर अपना शोध कार्य करके पीएचडी की उपाधि प्राप्त की। आपने अब तक 8 से अधिक पुस्तकों का लेखन किया है, जिसमें से 2 पुस्तकें पत्रकारिता के विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध हैं। मातृभाषा उन्नयन संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष व मातृभाषा डॉट कॉम, साहित्यग्राम पत्रिका के संपादक डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ मध्य प्रदेश ही नहीं अपितु देशभर में हिन्दी भाषा के प्रचार, प्रसार और विस्तार के लिए निरंतर कार्यरत हैं। डॉ. अर्पण जैन ने 21 लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में परिवर्तित करवाए, जिसके कारण उन्हें वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्डस, लन्दन द्वारा विश्व कीर्तिमान प्रदान किया गया। इसके अलावा आप सॉफ़्टवेयर कम्पनी सेन्स टेक्नोलॉजीस के सीईओ हैं और ख़बर हलचल न्यूज़ के संस्थापक व प्रधान संपादक हैं। हॉल ही में साहित्य अकादमी, मध्य प्रदेश शासन संस्कृति परिषद्, संस्कृति विभाग द्वारा डॉ. अर्पण जैन 'अविचल' को वर्ष 2020 के लिए फ़ेसबुक/ब्लॉग/नेट (पेज) हेतु अखिल भारतीय नारद मुनि पुरस्कार से अलंकृत किया गया है।