जहाँ में आई एक नन्हीं सी कली थी,
सभी की नूर थी नाजों से पली थी।
हंसती -खिलखिलाती सभी को प्रिय थी,
गृहलक्ष्मी का नाम संग में लिए थी।
घर से कदम बढ़े,कुछ आगे चली थी,
लड़खड़ाते कदमों से वह गिर पड़ी थी।
चलना जब सीखी स्कूल पहुँची थी,
ये सीखो,ये करो इन उलझनों में फंसी थी।
ये घर तेरा नहीं, इन बंधनों को पाया था,
क्या मैं इनकी नहीं, ये ख्याल आया था।
तभी उम्र से बढ़कर खुद को पाया था,
अपनों के बीच भी गैरों-सा ख्याल आया था।
कुछ करना चाहती थी यही मन में आस थी,
सबसे अलग बनने की जीवन में ख्वाहिश थी।
पर समाज ने बेटी को कब स्वीकारा है?
बेचारी को गलती पर सभी ने धिक्कारा है।
समझ आते ही बंधनों में बांधी गई,
समाज के भय से डोली में बैठाई गई।
पर एक प्रश्न अपने मन में हमेशा पूछती हूँ,
क्या यही मेरी मंज़िल है,यही सोचती रहती हूँ।
बीत गई आज मेरे बचपन की घड़ियां,
डाली गई पांव में मेरे बंधनों की बेड़ियां।।
#प्रेरणा सेंद्रे
परिचय: में रहती हैं। आपकी शिक्षा एमएससी और बीएड(उ.प्र.) है। साथ ही योग का कोर्स(म.प्र.) भी किया है। आप शौकियाना लेखन करती हैं। लेखन के लिए भोपाल में सम्मानित हो चुकी हैं। वर्तमान में योग शिक्षिका के पद पर कार्यरत हैं।
अच्छी रचना