परिंदे को परिंदे की पहचान है,
चहुँओर मच रहा घमासान है।
कतर रहे पर एक-दूजे के,
बनती इससे ही इनकी शान है।
बजाते सब ढपली अपनी-अपनी,
न सुर है, न कोई ताल है।
भूल रहे सभ्य सभ्यता सब अपनी,
फिर भी खुद को खुद पर नाज़ है।
कहते जीत रहे हैं बस हम ही,
गंजों को अपने नाखूनों पर नाज़ है।
जैसी मातृभूमि की हालत थी कल,
वैसी ही मातृभूमि की आज है।
# विवेक दुबे
परिचय : दवा व्यवसाय के साथ ही विवेक दुबे अच्छा लेखन भी करने में सक्रिय हैं। स्नातकोत्तर और आयुर्वेद रत्न होकर आप रायसेन(मध्यप्रदेश) में रहते हैं। आपको लेखनी की बदौलत २०१२ में ‘युवा सृजन धर्मिता अलंकरण’ प्राप्त हुआ है। निरन्तर रचनाओं का प्रकाशन जारी है। लेखन आपकी विरासत है,क्योंकि पिता बद्री प्रसाद दुबे कवि हैं। उनसे प्रेरणा पाकर कलम थामी जो काम के साथ शौक के रुप में चल रही है। आप ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं।