संजा देती है कला ज्ञान ,एवं मनोवांछित फल 

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drushti

संजा पर्व मालवा , निमाड़ ,राजस्थान ,गुजरात के क्षेत्रों में कुंवारी कन्याए गोबर से दीवार पर सोलह दिनों तक विभिन्न कलाकृतियाँ बनाती है तथा उसे फूलों व् पत्तियों से श्रंगारित करती है वर्तमान में संजा का रूप फूल -पत्तियों से कागज में तब्दील होता जा रहा है ।माता पार्वती की पूजा का पर्व है।माता पार्वती से अविवाहित वर की मांग हैतू संजा की पूजा करती  पर्व आते ही लडकियां प्रसन्न हो जाती है । संजा को कैसे  मनाना है | ये छोटी लड़कियां   बड़ी लड़कियां को  बताती है। शहरों में सीमेंट की इमारते और दीवारों पर महँगे पेंट पुते होने, गोबर का अभाव ,लड़कियों का ज्यादा संख्या में एक जगह न हो पाने की वजह ,टी वी ,इंटरनेट का प्रभाव और पढाई की वजह बताने से शहरों में संजा मनाने का चलन ख़त्म सा हो गया है । लेकिन गांवों /देहातो में पेड़ों की पत्तियाँ ,तरह तरह के फूल ,रंगीन कागज ,गोबर आदि की सहज उपलब्धता से ये पर्व मनाना शहर की तुलना में आसान है । परम्परा को आगे बढ़ाने की सोच में बेटियों की कमी से भी इस पर्व पर प्रभाव पढ़ा है इसलिए कहा भी गया है कि बेटी है तो कल है किसी ठीक ही रचा है”आज शहर में भूली पड़ीगी है म्हारी संजा /घणी याद आवे है गाँव की सजीली संजा /अब बड़ी हुई गी पण घणी याद आवे गीत -संजा /म्हारी पोरी के भी सिखऊँगी बनानी संजा /मीठा -मीठा बोल उका व सरस गीत गावेगी संजा “। हम उम्र सहेलियों के साथ संजा गीत से गुलजार होती क्वार की शामों को और भी मनमोहक बना देती है । वहीँ छोटे भाई भी प्रसाद खाने की लालसा में संजा के गीत गुनगुना लेते है और बहनों के लिए संजा को दीवारों पर सजाने में उनकी मदद करते है । संजा से कला का ज्ञान प्राप्त होता है ,पशु -पक्षियों की आकृति बनाना और उसे दीवारों पर चिपकाना। गोबर से संजामाता को सजाना और किला कोट जो संजा के अंतिम दिन में बनाया जाता है ,उसमे पत्तियों ,फूलों और रंगीन कागज से सजाने पर संजा बहुत सुन्दर लगती है । लडकियाँ संजा के लोक गीत को गा कर संजा की आरती कर प्रसाद बाटती है ।” संजा तू थारा घर जा ,थारी माय मारेगी की कुटेगी ,चाँद गयो गुजरात। … “/संजा माता जिम ले। … /छोटी सी गाड़ी लुढ़कती जाए जी में बैठी संजा बाई जाए। … /आदि श्रंगार रस से भरे लोक गीत जिस भावना और आत्मीयता से गाती है ,उससे लोक गीतों की गरिमा बनी रहती और ये विलुप्त होने से भी बचे हुए है । मालवा – निमाड़ की लोक परम्परा श्राद पक्ष के दिनों में  कुंवारी लडकिया माँ पार्वती से मनोवांछित वर की प्राप्ति के लिए  पूजन अर्चन करती है । विशेषकर गाँवों में संजा ज्यादा मनाई जाती है । संजा मनाने की यादें लड़कियों के विवाहोपरांत गाँव /देहातों की यादों में हमेशा के लिए तरोताजा बनी रहती है और यही यादें उनके व्यवाहर में प्रेम,एकता और सामजस्य का सृजन करती है । संजा सीधे- सीधे हमें पर्यावरण से ,अपने परिवेश से जोडती है ,तो क्यों न हम इस  कला को बढ़ावा दे और विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जांए ,वेसे उज्जैन में संजा उत्सव पर संजा पुरस्कार से सम्मानित भी किया जाने लगा है ।कुल मिला कर संजा देती है कला ज्ञान ,एवं मनोवांछित फल ।

#संजय वर्मा ‘दृष्टि’

परिचय : संजय वर्मा ‘दॄष्टि’ धार जिले के मनावर(म.प्र.) में रहते हैं और जल संसाधन विभाग में कार्यरत हैं।आपका जन्म उज्जैन में 1962 में हुआ है। आपने आईटीआई की शिक्षा उज्जैन से ली है। आपके प्रकाशन विवरण की बात करें तो प्रकाशन देश-विदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर रचनाओं का प्रकाशन होता है। इनकी प्रकाशित काव्य कृति में ‘दरवाजे पर दस्तक’ के साथ ही ‘खट्टे-मीठे रिश्ते’ उपन्यास है। कनाडा में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विश्व के 65 रचनाकारों में लेखनीयता में सहभागिता की है। आपको भारत की ओर से सम्मान-2015 मिला है तो अनेक साहित्यिक संस्थाओं से भी सम्मानित हो चुके हैं। शब्द प्रवाह (उज्जैन), यशधारा (धार), लघुकथा संस्था (जबलपुर) में उप संपादक के रुप में संस्थाओं से सम्बद्धता भी है।आकाशवाणी इंदौर पर काव्य पाठ के साथ ही मनावर में भी काव्य पाठ करते रहे हैं।

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