पुस्तक समीक्षा
कवि :-श्री रमेशचंद्र विनोदी जी
*संक्षिप्त परिचय*बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी विनोदी जी सहज ,सरल ,गंभीर प्रवृत्ति के वह कलमकार हैं जिनको अपनी माटी ,अपनी संस्कृति ,से लगाव है।जिनको प्रेम है हर रिश्ते नाते से ।जीवन के संघर्षों ने उनको हर उस चीज में पारंगत किया है जो सामने आती गयीं।कलम को थामते *प्रेम अवतरण* में जीवन के हर संबंध को अपनाया तो *शेफाली* की उन्मत्त खुशबू ,श्वेतपीत वर्णी रंग के साथ उसके गुणों को भी रचनाओं में समाहित किया।वहीं तूलिका से रंगों से खेलते कब चित्रकार बन गये स्वयं को ही न भान हुआ। तूलिका ,कलम के सिद्ध हस्त कवि हृदय विनोदी जी बैंजो जैसे वाद्य यंत्र में अपना सुकून ढूंढते हैं। जब यहाँ भी मन न लगता तो जादू के उन करिश्मों को आजमाने लगते हैं कि लोग ताली बजाने को मजबूर हो जाते हैं। मानव मन की कमजोरी है भटकना ।पर विनोदी जी के भटकाव ने उनके पाँवों के नीचे ठोस जमीं दी। जीवन के प्रश्नों को रंगमंच पर साकार करते विनोदी जी की आजीविका का साधन है कपूरथला का रेलडिब्बा कारखाना,जहाँ वरिष्टतकनीशियन के रुप में आप अपनी सेवायें दे रहे हैं।*सदस्य* :–1-भारतीय जादूगर सोसायटी 2-इंटरनेशनल ब्रदरहुड ऑफ मैजिशियन 3-लोक साहित्य कला केंद्र ,कपूरथला*निर्देशक* :-मॉर्डन थिएटर ग्रुप ,रेल कोच फैक्ट्री ,कपूर थला।
मृदु भाषी कवि विनोदी जी का जन्म अगस्त में हुआ जो अंग्रेजी में पवित्र माह माना जाता है।उनकी पहली पुस्तक प्रेम अवतरण ने प्रेम के नये आयामों को छुआ है।50रचनाओं को दस विभिन्न समूहों में बाँट कर उसकी मीमाँसा की जा सकती है।जहाँ एक तरफ जीवन के प्रति प्रेरक दृष्टिकोण हैं वहीं स्वयं की जिंदगी के विभिन्न पहलुओं ,बचपन ,रिश्तों को जीती रचनाएँ।कहीं आयु के निशान तो कहीं ऋतु और रात्रि की शीतल स्पंदन से भरी रचनाएँ।बानगी भर देखिये …1–रुकी कलम की धारा चल तोड़ झिझक की कारा चल यादें मीठी दर्द भरी बन कर आँसू खारा चल।2–कतरा आंसू नहीं हृदय में,हृदय समंदर ढो रहा हूँ। माँ ,मैं रो रहा हूँ।3–शीर्षक कविता प्रेम अवतरण दीप्त रसायन हुई हलचल,द्रव्य महि गर्भ विकल काम संचरण होता है ,हरितम आवरण होता है ।लो प्रेम ,अवतरण होता है।4-खिले हुए पुष्प हैं या भँवरे डोल रहे हैं।देवी तेरे नयन मन की गांठें खोल रहे हैं।….उपरोक्त पहली पुस्तक की बानगी भर है ।दूसरी पुस्तक *शेफाली :–बात करें पहले *कला पक्ष* की तो शेफाली में कुल 41रचनाये हैं जिनमें चार सॉनेट हैं।37कवितायें ।छंद बद्ध सृजन ,शब्द चयन मन को बाँधे रखता है।कुछ गीत हैं जो बार बार गाये जाने का आगृह करते हैं।ऋतु वर्णन में आषाढ़ मास, अमावस की रात ,दार्शनिक भाव की रचनाएँ..पर्णागार और सितारा दूर गगन का,गाँव के प्रति लगाव से परिपूर्ण गाँव की भोर का चित्रलिखित सृजन ,तो दूसरी ओर जीवन के लिए संघर्ष का *संदेश* देती रचना।सतत् गतिशील रहने की प्रेरणा देती *पहिया* तो जीवन के बदलाव को इंगित करती *बदलाब।*हर रचना कवि के अंतर्मन की वेदना ,भावों की गहराई ,प्रेम ,जीवन की ऊहापोह के बीच श्रृंगार को भी आश्रय देती है।तब वह प्रेम गीत भी गाता है ।सबसे विशेष बात है नवीन शब्द का प्रयोग ,नये बिंब और उपमान ,प्रतिमानों का प्रयोग।उर्दू के शब्दों का भी समावेश शेफाली में हुआ है। *ख़ता* रचना में उर्दू बाहुल्य शब्द बहुत उम्दा बन पड़े हैं –वक्ते वस्ल,शिद्दत,गुनाह…आदि। *कठजोड़ी,घाम चूंटने,तिड़क तिड़क कर कड़ियल,मनार्णव,ठंडी चांदनी,तपता तालाब,बबूल के काँटों जैसी जवानी,आदि।*जहाँ आंचल को प्रतीक रुप में हर भाव से जोड़ा है वहीं पिता के लिए उमड़ते भाव उनके जन्मदाता के ऋण से उऋण न होने की अकथ कहानी कहते हैं।।विनोदी जी की भाषा पर मजबूत पकड़ है।पंजाबी शब्दों को भी यथा स्थान उपयोग किया है जो सुंदर रुप से रचना में ढले हैं।देशज शब्दों ने सृजन को एक ऊँचाई दी है ।रोज उपयोग में आने वाले शब्द भी यदा कदा चिलमन से झांकते नज़र आते हैं।कहीं कहीं भाषागत् त्रुटियाँ खास तौर से अनुस्वार ,मात्राओं की ।हो सकता है कि पंजाबी होने के कारण लहजे की आदत रचनाओं में आई हो।प्रस्तुत पुस्तक पाठक के मन पर अविस्मरणीय छाप छोड़ने में सफल है।*भावपक्ष* :–पहली रचना ही कवि मन के द्वंद को परिभाषित करती है। प्रेम के उस बंधन में कवि छटपटाता हुआ विमुक्त होना चाहता है जब दो के बीच किसी एक को चुनने का दर्द उसे उलझाता है तब वह गा उठता है ..*तोड़ नेह की उत्ताल भित्तियाँ,चेतन विरहासिक्त किया।भर संवेदनाओं के कटुपाश,निज आलिंगन तिक्त किया।प्रेम तुझे अब मुक्त किया।* बेहद ही गहरे भाव मन की विकलता ,छटपटाहट को व्यंजित कर रहे हैं।आख्यानों को भी यथा स्थान प्रयोग कवि की गहरी सोच का दिग्दर्शन कराती है *प्रेम जनित प्रकाश शंकुतले!**घोर तमस दुष्यंत किये*अंत में कवि हार कर कह उठता है *अभिलाषाओं की फेंक पोटली,अपरिग्रह उन्मुक्त किया।उलझे जितने ताने बाने,समेट सब संयुक्त किया।प्रेम तुझे अब मुक्त किया*।
मेरे वो गीत रचना गहरे अर्थों व प्रतिमानों के साथ एक सत्य का दर्शन बोध कराती प्रतीत होती है।*मेरे वो गीत,गीत नहीं थे तेरी प्रेम छुअन से पहले,जैसे कोई पत्थर की मूरत,प्राण प्रतिष्ठा पूजन से पहले* एक शाश्वत् सत्य का दिगदर्शन कराने में सफल गेयतापूर्ण ,लय बद्ध गीत है जिसे बार बार गुनगुनाया जा सकता है।उपमायें देखिये .. *तेरे श्वासों की महकों से मेरे* *अधर कविताएँ बहकी* भावों का मानवीय करण के बेहतरीन उदाहरणो से परिपूर्ण।जीवन के रंग रचना में जीवन को एक गुफा मान उसके अंधेरे में छिपे रहस्यों को उद्घाटित करती रचना।गर्भ से लेकर मृत्यु तक के हर रंग को उकेरने की बहुत ही बेहतरीन सफल कोशिश .।गाँव की भोर में लगभग तीस पैंतीस साल पहले की उस सुबह को बाँधा है जब पौ फटने से पहले गाँवों में जीवन शुरू हो जाता था।कुछ देशज कुछ ग्रामीण शब्दों के प्रयोग ने रचना में भाव भर दिये हैं। एक एक पंक्ति जैसे जीवंत दृश्य बन नैनों के सामनै से गुजरती जाती है।लटके झुमका,पच्छम,दखण,पौ फटने में वार ,गाँव की भिन्सार ,क्लेवार ।यद्यपि *क्लेवार* शब्द मेरे लिए नया है ।अलस उनींदी गलियाँ,रहरहाती चाकी ,चिकना *बिन्डा* ,चून पीसती ,झकोणी के हृदय में मथानी जैसे शब्दों ने ग्रामीण परिवेश को जीवंत कर दिया।लगता है कवि ने बहुत निकट से इस जीवन को जिया है।सच कहूँ तो विनोदी जी द्वारा रचित शेफाली वो कैनवास है जो मन के विविध रंगों से नयनाभिराम छवियों से सजा है। उनकी रचनाओं को पढ़ते हुये मन उनमें खो जाता है ।होंठ स्वतः ही गुनगुनाने को मचल उठते हैं।भावों के दरिया में अवगाहन करने को मन मचल उठता है।।स्व परिचय देते हुये जब कवि कहता है *जो दिखता हूँ ,मैं वो नहीं हूँ* तब कवि मन की सच्चाई जानने को मह विह्वल हो उठता है।कौनसा भाव है जो उनकी शेफाली में निहित नहीं !उदात्त प्रेम ,विरह ,नेह ,काम ,वेदना,मानवीय व.सामाजिक सरोकार ,नैसर्गिक सौंदर्य ,व्यंग ,कटाक्ष।,शिकायतें हैं तो प्रेम भी ,मिलन है तो बिछोह भी ,आशा है तो निराशा भी ,बटोही है तो थकान भी।विरहिणी की पीड़ा देखिये जब बादल छा कर बरसने को आतुर होते हैं ..*छेद छत के सब भर जाते,बरसात आने से पहले।काश!तुम भी घर आ जाते,बरसात आने से पहले।*पूरी पुस्तक का आनंद तभी लिया जा सकता है जब इन रचनाओं को आत्मसात कर ,डूब कर पढ़ा जाए।हर रचना अलग ही गहरा भाव लिये चकित करती है।अंत में सॉनेट की बात किये बिना बात अधूरी है।सॉनेट काव्य की वो विधा है जिस पर बहुत कम काम हुआ है ।मूल रुप से चौदह पंक्तियों की रचना विपरीतता के भाव के चरम सौंदर्य को स्पष्ट करती है।इसका अलग विधान होता है ।पहली ,तीसरी ,पांचवी ,सातवीं पंक्ति की तुक दूसरी ,चौथी ,छठवीं ,आठवीं से मिलनी जरुरी होती है ।लय बद्ध होती है लेकिन गीत नहीं होती।विनोदी जी ने अच्छा प्रयास किया है सॉनेट पर ।आगे इस विधा में बहुत स्कोप है काम करने के लिए ।इसे न तो स्वतंत्र अभिव्यक्ति कह सकते हैं न मुक्तक न गीत ।पर मात्रा का नियम यहाँ भी देखा जाता है।आइये देखते हैं विनोदी जी के सॉनेट ..विपरीतता *उफनती सरिता हो तुम ,मैं गढ्ढे में सिमटा पानी हूँ।तुम बारिश किनारों की ,मैं बादल रेगिस्तानी हूँ।*
वियोग — *ढलने लगती है जब साँझ की लाली,अंतिम किरण को समेट कर आगोश में,विरहाकुल रात आने लगती आवेश में,महक उठती है तब कानन में शेफाली*
अद्भुत मानवीय संवेदनाओं के चितेरे विनोदी जी ने संवेदनाओं के नये मानक गढ़े हैं,शब्दों को मोती मणियों सा सजाया है भावो के सागर में *मन* को इतना डुबोया है कि कालजयी रचना का स्थान पा जायें तो अतिश्योक्ति न होगी।अंत में बस यही कि लेखनी के धनी ,रंगकर्मी,चित्रकार ,कवि रमेश विनोदी ने हर रंग में स्वयं को साबित किया है।साहित्य संसार में यह अपना विशिष्ट स्थान बना सकेंगे।शुभकामनाओं के संग …!!
#मनोरमा जैन पाखी