ऑफिस की खिड़की से जब देखा मैने
मौसम की पहली बरसात को
काले बादल के गरज पे नाचती
बूंदों की बारात को ….
तब –
एक बच्चा मुझ में से निकलकर
भागा था , भींगने बाहर ….
रोका बड़प्पन ने मेरे , उसे …!
बारिश और मेरे बचपने के बीच
उम्र की एक दीवार खड़ी हो गई
लगता है मेरे बचपन की
बारिश भी अब बड़ी हो गई ।
ये बारिश की जो बूँदें –
कांच की दीवार को खटखटा रही थी
मैं उनके संग खेलता था कभी ,
इसीलिए मुझे भींगने बुला रही थी
पर –
तब मैं छोटा था और ये बातें बड़ी थी
वक्त पर घर पहुंचने की
किसे पड़ी थी ।
अब तो बारिश , पहले राहत
फिर आफत बन जाती है
जो गरज पहले लुभाती थी
अब वही डराती है ।
मैं डरपोक हो गया ,
और बदनाम
सावन की झड़ी हो गई
लगता है मेरे बचपन की बारिश भी
अब बड़ी हो गई ।
जिस पानी में छपाके लगाते थे
अब उसमें कीटाणु दिखने लगे ।
खुद से ज्यादा फ़िक्र कि , लेपटॉप भीगने लगा।
स्कूल में दुआ करते थे कि –
बरसे बेहिसाब तो छुट्टी हो जाये
अब भीगें तो डरें, कल कहीँ –
ऑफिस की छुट्टी न हो जाये ।
जब चाय पकोड़ों के संग
इत्मिनान से भीगता था।
वो दौर , वो घड़ी –
बड़े होते – होते कहीँ खो गई।
लगता है मेरे बचपन की
बारिश भी अब बड़ी हो गई ।
डॉ. आर. पी. टिकरया
इटारसी(मध्यप्रदेश)