सभी जानते है लोक डाउन क्या है, यह भी जानते कि यह आवश्यक है, क्योंकि हम लगभग भूल चुके थे, मास्क पहनना, हाथ धोना, दूरी बनाकर रखना। हम भूल चुके थे कोरोना संक्रमण। लगभग एक वर्ष होते होते हम इसके अभ्यस्त हो चुके थे, प्रशासन भी अब सावधानी के इतर ढुलमुल बन गया था। तब जब संक्रमित 10 लाख ठहम सावधान थे, जब 1 लाख के करीब हुए तो हमने फिर मिलना, जुलना, भीड़ लगाना आरंभ कर दिया। इसमें आप, मैं, हम सभी आते है। यह संक्रमण किसी बाहरी दुनिया के व्यक्ति ने नही फैलाया। यह हमसे ही फैला है। चीन के एक शहर से आरंभ हुई यह त्रासदी पूरी दुनिया के लिए अभिशाप बन गई।
समाधान के लिए सरकारों के पास लोक डाउन के अतिरिक्त कोई विकल्प नही था। प्रथम चरण में तो जनता जागरूक थी, समाजसेवी जागरूक रहे, कई संगठनों ने जन जन का सहयोग किया, उसके बाद भी विषमताओं में रहकर भी देश ने पूरा सहयोग किया। हमें पुनः उस सेवा को जाग्रत करना होगा। समाज के उसी दृष्टि को जाग्रत करना होगा जिसमें प्रत्येक भूखे को अन्न देने की जीवटता देश ने दिखाई है।
कोरोना से संबंधित इंजेक्शन के स्टॉक में हुई कटौती के कारण इसे मूल्य से अधिक दाम पर बेचने और लाइन लगाकर खरीदने के लिए परेशान होते लोगो के चित्र दुर्भाग्यजनक है। इस संबन्ध में अवश्य ही हमारी दूरदृष्टि कमजोर सिद्ध हुई, जो देश कोरोना वैक्सीन बनाकर विदेश भेज सकता है वह रेमेडिसिव व अन्य इंजेक्शन के उत्पादन को भी बढ़ा सकता था। ताकि मांग में तात्कालिक व्रद्धि होने पर जनता को असुविधा न हो। हम यह मानते है कि हमारा चिकित्सा तंत्र इतनी बड़ी त्रासदी के लिए तैयार नही था, परन्तु फिर भी हमारे डॉक्टर व वैज्ञानिकों ने जो कीर्तिमान स्थापित किये, वह प्रेरक है, प्रशंसा योग्य है, ऐतिहासिक है। वास्तव में देश तभी खड़ा होता है जब सभी नागरिक मिलकर समस्या से निपटने के लिए एकजुट हो जाते है। इस कोरोना काल ने भी हमें एकजुट किया है।
परन्तु फिर भी अब इस लोक डाउन में सामान्य व गरीब तबके की आफत बन आई है, वे दहाड़ी मजदूर जो लगभग रोज कमाते और रोज खाते है, उनके लिए यह लोक डाउन किसी वज्राघात से कम नही है। काम बंद, धंधे बंद, दुकान बंद, होटल बंद आय के सारे साधन बंद, ऐसे विकट समय में कोई सहायता परिवार की पेट की अग्नि को शांत नही कर सकती। जो दैनिक आय से भरण पोषण हो सकता था उस गति को लोक डाउन ने रोक दिया। हमें चिंता है उन मजदूरों की जो शादी ब्याह में काम करके अपना घर चलाते, हमें चिंता है उन बेंड वालों की जिनका पूरा वर्ष इसी इंतजार में निकलता की कब शादी ब्याह का सीजन आएगा और उनकी कमाई होगी, हमें चिंता है उन कपड़े की दुकान वालो की जो साल भर का स्टॉक सिर्फ इसी लिए रखते ताकि इस सीजन में उनके घर परिवार का कर्ज कम हो सके। हमें चिंता है उन खाना बनाने और परोसने वालो की जिनके माता पिता इसी शादी के सीजन के इंतजार में रहते। हमें चिंता है फल, सब्जी, फूल वाले कि जिसकी आजीविका दैनिक लेनदेन पर ही निर्भर है। जिनमे से कई परिवार तो ऐसे भी होंगे जिनके पास कल का राशन भी शेष नही रहता। सरकार ने अपने स्तर पर हर गरीब को राशन देने की योजना आरंभ तो की थी, किंतु अब जारी है या नह कह नही सकते। क्योंकि कई मजदूरों के कूपन भी नही बनते, क्योंकि वे अपने निवास से बहुत दूर मजदूरी करने जाते है। तो लोक डाउन के ये 2 दिन उस परिवार में कैसे बीतेंगे ?
आपके पास टीवी है, पॉपकॉर्न होगी, IPL चल रहा है, शायद दिन और रात आराम से निकल भी जाये, कूलर या ऐसी में बैठकर आप गर्मी से भी बच जाएंगे। परन्तु उस परिवार का क्या जिसके पास रहने को छत नही, खाने को अन्न नही। भारत एक बड़ा देश है जितने अमीर है उससे कई गुना अधिक गरीब भी है, हम अमेरिका, जापान, जर्मनी की तरह संसाधन नही जुटा सकते। हम हर नागरिक की कुशलता निश्चित नही कर सकते। परन्तु हम इतना अवश्य कर सकते है, कि जो फल, सब्जी, ठेले वाले, बेंड, केटरिंग, दैनिक मजदूरी वाले, उनको पूरे लोक डाउन एक निश्चित सहायता राशि उनके अकाउंट में डालते रहें। सरकार के पास आज पूरे आंकड़ें है, कौन व्यक्ति क्या करता यह जानकारी है। हम अन्य सुविधाओं से जुड़े सब्सिडी में कटौती कर सकते है, परन्तु कोरोना काल मे सबसे गरीब तबके का सहयोग आवश्यक है। आप यदि उन्हें काम नही दे सकते तो उनके पोषण का दायित्व भी आपका है।
यह तब आवश्यक है जबकि हम देश मे लोक डाउन लगा रहे, और चुनाव में भीड़ वाली सभाओं को संबोधित कर रहें। यह तुलनात्मक विश्लेषण प्रश्न खड़े करने वाला अवश्य है। परन्तु किसी के समर्थन या किसी के विरोध में नही। एक लेखक का प्रश्न सदैव जिम्मेदारों से ही रहता है, क्योंकि लेखनी कभी किसी के अधीन नही होती। वह वही कहती है जो जन मानस का मत होता है और आज इस विपरीत समय में चुनाव निश्चित रूप से असंवैधानिक है। परन्तु क्या चुनाव न करवाने के निर्णय को विपक्ष स्वीकार कर सकेगा ? क्या अगले 1 या 2 वर्षों तक चुनाव न करवाने के निर्णय और तत्कालिक सरकारों को 2 वर्ष तक आगे बढाने के निर्णय में विपक्ष साथ देगा। नही, यह जनता का मत है कि चुनाव न हो, क्योंकि कोई भी राजनीतिक दल हो वह चुनाव चाहता है। ताकि समीकरण बने, सत्ता मिलने के अवसर बने, फिर चाहे समस्या कोई भी हो।
निष्कर्ष यही है कि अंततः भीड़ वाली सभाओं पर प्रतिबंध लगे, दिक्कत चुनाव से नही, केवल भीड़ के एकत्र होने से है, यह कोरोना विपत्ति भी एक युद्ध ही है, परन्तु यह युद्ध सावधानी, दूरी और स्वच्छता से जीता जा सकता है। सावधानी बढ़ाएं, सख्ती बढ़ाएं, परन्तु जनता को कुछ आदेश करने से पहले हम उस आचरण में चलना सीखें। दोनों बातें एक साथ नही चल सकती। जनता ने सदैव कोरोना युद्ध में समर्थन किया और आज भी इसके लिए देश तैयार भी है, बस लोक डाउन से संबंधित कोई भी निर्णय लेने से पहले जन प्रतिनिधि अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और सभाओं की भीड़ को भी देख लें। क्योंकि जनता देख रही है, प्रश्न कर रही है, और उसके यह प्रश्न पेट की भूख से उठे है, जो दबने वाले नही।
मंगलेश सोनी
मनावर मध्यप्रदेश