मानवता

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vijaylakshmi
है दीनबन्धु दाता ईश्वर,
है तुमसे सवाल ये परमेश्वर।
सृष्टि के तुम धारक नियन्ता,
तुम ही जग के पालन करता।
क्यों तुमने रचकर सुंदर सृष्टि,
उसमें करुणा का विधान किया।
भोले-भाले बचपन को क्यों,
जग की दुविधा में डाल दिया।
मेरे भोले प्रश्नों का,
है परमपिता अब ध्यान धरो।
मानव के भीतर फिर से,
मानवता का सन्धान करो।
किससे पूंछूं और कौन कहे,
क्यों जन सच्चे झुठलाते हैं ?
देख जगत के दिखलावा,
सदजन क्यों धोखा खाते हैं ?
एसा सुनते थे बचपन में,
जो सच के पथ के राही।
वे न्याय सदा ही पाते हैं,
वे मान सदा ही पाते हैं।
पर देख दुराचारी दुनिया,
हम बच्चे हैं,डर जाते हैं।
है विनती करते दाता तुमसे,
हम बच्चों का ध्यान धरो।
फिर से मानव के भीतर,
मानवता का सन्धान करो।
कथनी-करनी में भेद देख,
माथा घूमे चक्कर आए।
कहते हम रुप तुम्हारे हैं,
फिर क्यों कर छल के मारे हैं ?
प्रद्युम्न कभी निर्भया बनकर,
क्यों अखबारों में छाते हैं ?
क्यों रोज सड़कों पर बच्चे,
बेबस हो मारे जाते हैं।
बड़े हो गए या बच्चे हैं,
समझ में हम प्रभु अभी कच्चे हैं।
इस प्रपंच की दुनिया में,
क्यों जन्मे हम मन के सच्चे हैं ?
ये प्रश्न आखिर पूछे किससे,
है मालिक तुम्हीं निदान करो।
फिर से मानव के भीतर,
मानवता का सन्धान करो।
कहते कुछ और करते कुछ हैं,
ये तेरे लाल कहलाते क्यों ?
है महाप्रतापी महावीर प्रभु,
ये तुझ पर कलंक लगाते क्यों ?
मानव जो कृति तुम्हारी है,
क्यों अंधियारे की मारी है ?
है अर्जुन के पथनायक तुम,
चक्षु खोलो और ध्यान धरो।
फिर से मानव के भीतर,
मानवता का सन्धान करो।

                                                             #विजयलक्ष्मी जांगिड़

परिचय : विजयलक्ष्मी जांगिड़  जयपुर(राजस्थान)में रहती हैं और पेशे से हिन्दी भाषा की शिक्षिका हैं। कैनवास पर बिखरे रंग आपकी प्रकाशित पुस्तक है। राजस्थान के अनेक समाचार पत्रों में आपके आलेख प्रकाशित होते रहते हैं। गत ४ वर्ष से आपकी कहानियां भी प्रकाशित हो रही है। एक प्रकाशन की दो पुस्तकों में ४ कविताओं को सचित्र स्थान मिलना आपकी उपलब्धि है। आपकी यही अभिलाषा है कि,लेखनी से हिन्दी को और बढ़ावा मिले।

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