एक बार संत हुसैन का ध्यान कुत्ते की तरफ आकृष्ट करते हुए किसी नास्तिक व्यक्ति ने पूछा-‘आप दोनों में श्रेष्ठ कौन है? आप अच्छे हैं या यह कुत्ता अच्छा है?’ संत जानते थे,जिसकी आत्मश्रद्धा कमजोर हो या जो अपने अस्तित्व को स्वीकार न करता हो वह नास्तिक है। जो धर्म को न माने वह नास्तिक नहीं,बल्कि जो अपनी आत्मा पर भरोसा नहीं रखता,वह नास्तिक है।
संत हुसैन बहुत पहुँचे हुए और सही सोच के धनी थे। उन्होंने सीधे ऐसा मार्मिक उत्तर दिया कि नास्तिक भी उनके चरणों में नत मस्तक हो गया। उन्होंने कहा-‘जिंदगी के जो पल मैं धर्म आराधना में बिताता हूँ और पवित्र कार्य में लगा रहता हूँ उन पलों में मैं कुत्ते से श्रेष्ठ हूँ। यदि मैं पापमय जीवन जीऊँ,अपने मन,वाणी या शरीर को सतत् अशुभ क्रिया में लगाए रखूं तो उन पलों में कुत्ता मेरे से श्रेष्ठ है।’
इससे स्पष्ट है,जो पाप में प्रवृत्त रहता है,बुरे काम करता है,वह मनुष्य होते हुए भी पशु के समान है। जिस प्रकार आहार का अजीर्ण हो जाए तो शारीरिक रोग पैदा होते हैं,उसी प्रकार कोई व्यक्ति धन कमाकर पचा नहीं पाता तो उसे अहंकार आ जाता है। इसी प्रकार सुख को जो पचा नहीं पाते, उनके जीवन में पाप प्रविष्ट हो जाते हैं।
सुख मिलने के बाद उसे पचाना बहुत बड़ी तकनीक है,जो हमें यह सिखाती है कि सुख में व्यक्ति को क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिए। सुखी व्यक्ति की पहचान के तीन पैमाने हैं।
अगर कोई व्यक्ति मनचाहा करता हो या मनमानी करने की उसे पूरी सुविधा मिली हो और वह सुविधा उसे सफलता तक पहुँचा रही हो तो समझ लेना-उस व्यक्ति के जीवन में सुख का सूर्य चमक रहा है। इससे विपरीत उसके जीवन में यदि मनचाहा नहीं हो पा रहा हो,अनहोनी हो रही हो और कदम-कदम पर असफलता मिलती हो तो समझना- सुख का सूर्य अस्त हो गया है।
यदि कोई व्यक्ति महसूस करे कि हर कोई उससे मधुर बोलता है,उसकी बात आदर से-ध्यान से सुनी जाती है,तो जानना उसके जीवन में सुख की अनुकूल हवा चल रही है। यदि सामने वाला बात पर ध्यान नहीं देता, अथवा गेंद की तरह बात को उछाल देता है तो जानना अभी दुःख का अर्थात् पापोदय का समय चल रहा है..मतलब दुःख की प्रतिकूल हवा चल पड़ी है।
अगर सुख के दिनों में व्यक्ति महसूस करे-मेरा अनुकूल समय सदा रहने वाला नहीं है,मुझे आगे की तैयारी भी करनी है। अतः सुख के क्षणों में से ऐसा चिंतन जगाना कि मेरा सुख जमी हुई बर्फ के समान है। फलस्वरूप यह पुण्य की राशि भी धीरे-धीरे पिघल रही है। अगर मैंने इस सुख के समय को सिर्फ पुण्यभोग में बिताया तो यह बर्फ दुगुने वेग से पिघल जाएगी। अतः सुख के दिनों में मुझे सावधान रहना है,ताकि सुख के सूरज पर पाप के बादल न आने पाएं। बहुत कम लोग ऐसे हैं,जो सुख के दिनों में ऐसी सचेत सोच रख पाते हैं।
सुख के दिनों में प्रायः लोग दो प्रकार का आचरण करते हैं-पुण्य के काल में पाप की प्रवृति करना अर्थात् सुख के दिनों में पाप क्रियाओं में तल्लीन रहना(सैडिस्टिक हालीनेस)। सावधान! सुख का समय अधिक खतरनाक है। उन दिनों में सावधानी न रखी जाए तो भूलें,दोष,अपराध और पाप की मात्रा बढ़ने की पूरी संभावना रहती है।
सुख के दिनों में धर्म करना (अर्थात् हालीस्टिक हालीनेस)अर्थात् धर्म वही करेगा जो जानेगा,सुख स्थायी नहीं है,यह परिवर्तनशील है। अतः मुझे प्राप्त अवसर को आत्म-साधना में और आगे की जिन्दगी सुधारने में लगाना है। फलतः वह निश्चित रुप से आगे के जन्मों में सुख को सुरक्षित और आरक्षित कर लेता है।
अब जानेंगे कि,सुख के दिनों में अपना हित साधना है और प्राप्त योग का प्रयोग कैसे करना है? पुण्योदय से प्राप्त वस्तु और साधनों का प्रयोग करने हेतु दो बातें चाहिए-बिना पात्रता के सुख भी दुःख बनता है। साधनों का सदुपयोग करने हेतु सम्यक् पुरूषार्थ भी चाहिए,तभी आगे के सुखों का आरक्षण(स्थायित्व) हो सकता है। अक्सर इंसान सुख के दिनों में तीन तर्क देकर पुनः पाप में प्रवृत्त होता है। पहला तर्क है-सुख मुझे मेरे पुण्य से मिले हैं तो उसका मैं अधिकतम लाभ क्यों न लूँ? दूसरा तर्क है-दुनिया में कोई भी व्यक्ति दूध का धुला नहीं है। सभी लोग पाप करते हैं तो मैं क्यों न करूँ? इस तर्क से वह संवेदनहीन बनकर रहता है। तीसरा तर्क है-मैं दुनिया में जीता हूँ तो एक पाप या अपराध करने की छूट मुझे भी है। इन तीनों तर्कों के तले वह सुख के दिनों में दुःख का आरक्षण(स्थायित्व) कर लेता है।
इसके अलावा कुछ गलत मान्यताएँ मनुष्य के मन में छिपी हैं जो उसे पाप से निवृत्ति नहीं लेने देती है? उनमें छठी धारणा के अन्तर्गत कुछ लोगों का मानना है,आज हमने पाप किया है तो कल पुण्य करके उस पाप के फल को कम कर देंगे। यदि जीवन की चादर पाप से गंदी हो गई है तो उसे पुण्य के साबुन से धो लेंगे। आज जीवन के खाते को यदि पाप से नामे किया है तो कल पुण्य से जमा भी कर लेंगे। इस प्रकार हम अपना खाता संतुलन कर लेंगे,या दोगुने लाभ में ले आएंगे।
ये धारणा दो तरफ संकेत देती है। पहला संकेत है-मुझसे पाप तो हो गया पर अब मैं जिंदगी में कुछ अच्छा करूँ,जिससे मेरे पाप का भार कम हो। इस भावना से प्रेरित हो यदि व्यक्ति धर्म करता है या पुण्य करता है तो कोई हर्ज नहीं,यह उसके आत्मविकास का द्वार खोलता है।
दूसरा संकेत है-पाप करने से पहले मन को शर्तों से बाँध देना। ऐसा सोचना मेरा अशुभ,गलत,अनैतिक और धर्म विरूद्ध काम अगर सफल हो जाए तो मैं लाभ का कुछ अंश पुण्य कार्य में लगाऊँगा अर्थात् पहले पाप कर लो फिर पुण्य कर लेंगे। अभी चोरी या अनीति से कमा लो फिर लाभ का कुछ अंश दान कर देंगे,अथवा किसी की मदद कर देंगे। इसके पीछे भावना यह है,मेरा पाप न खुले और मुझे पाप का फल भी न मिले।
इस तरह मनुष्य पाप करने के लिए पुण्य की योजना तैयार कर लेता है। जैसे हम भंडारा लगाएंगे,मंदिर बनाएंगे,चोला चढ़ाएंगे,सोने का छत्र बनवाएंगे,अस्पताल,स्कूल,वृद्धाश्रम या अनाथालय में कमरा डलवा देंगे। यूँ लोग पाप का भय,लोकलाज और झिझक छोड़कर निःसंकोच खुशी से पाप प्रवृत्ति में कदम बढ़ा लेते हैं। पाप करने से पहले उन्होंने अपने मन में सुरक्षा कवच बिठा रखे हैं तो अधिक साहस के साथ वेगपूर्वक पाप करते हैंl इतना ही नहीं,पुण्य करने के इरादे से वे जब पाप करते हैं तो उन्हें भूल अनुभव नहीं होता। यूँ लोग पाप को पुण्य के तले कर लेते हैं।
शास्त्र कहते हैं,ऐसी धारणा रखोगे तो पाप करने का साहस बढ़ेगा। एक तो गलती की,ऊपर से उसे छिपाने हेतु पुण्य का सौदा किया तो निश्चित रूप से चित कठोर बनेगाlफिर समझ नहीं आएगा कि इसमें बुरा क्या है? इस तरह जो गलत था,उस पर एक और गलत की परत चढ़ जाती है और वह पाप सघन हो जाता है। जिस पुण्य कार्य के पीछे दया,करूणा या सहयोग का भाव नहीं है,वह पुण्य भी धर्म की ओर उन्मुख नहीं कराएगा। मात्र दान-पुण्य की रिश्वत देकर इंसान जीवन महल को कैसे टिका पाएगा?
सावधान! पुण्य की धारणा से किए गए पाप चिकना बंध कराते हैं। चूंकि पुण्य की ओट में पाप का डर और संकोच समाप्त हो जाता है,तो हँसते-हँसते खुशी से किए गए पाप कर्म के बंध का निमित्त बनते हैं,जिसे रो-रोकर भोगना पड़ता है। अतः पाप करने के लिए पुण्य का चश्मा मत पहनो, वर्ना दृष्टि बदल जाएगी और दृष्टि बदलते ही हम पाप के भय से मुक्त हो जाएँगे।
इसे ऐसे समझिए-एक ग्वाले के पास अनेक गायें थी,जिनमें दो गायें सूखी घास नहीं खाती थी। उन्हें हरा घास न मिले तो वे भूखे रहती थी,पर सूखी घास नहीं खाती थी। एक बार दुष्काल पड़ा। कहीं भी हरी घास न देख ग्वाले ने सोचा,ये दो गायें कहीं भूख से अपना दम न तोड़ बैठें..किन्तु हरी घास लाए कहाँ से?
उसके मित्र ने समाधान सुझाया-तुम दोनों गायों को हरे रंग का चश्मा पहना दो।
#राजकुमार जैन ‘राजन’
बहुत ही बडिया लख की रचना कि….आदमी पाप करता जाता है और उससे डरकर दिखावटी पुन्य करता जाता है……
बहुत सुन्दर , बधाई इस श्रेष्ठ चिंतन के लिये!
बहुत ही सुन्दर , सार्थक और ज्ञानवर्धक आलेख ….
बहुत उत्तम हैं, मार्मिक लेख हरा चश्मा बहुत बढि़या हैं
ज्ञानवर्धक आलेख
उत्तम आलेख हेतु आपको बधाई आदरणीय
मे्रे आलेख को प्रकाशित करने के लिए मैं मातृभाषा.कॉम का हृदय से आभार व्यक्त करता हूँ।जिन लोंगो ने इसको पढ़ कर पसन्द किया उनका शुक्रिया अदा करता हु। कई पाठको ने अपनी प्रतिक्रिया इस आलेख पर लिंक पर ही देने का प्रयास किया परन्तु तकनीकी कारणों से यहां पोस्ट न हो पाई तो उन्होंने मुझे व्यक्तिगत नम्बर पर अपनी प्रतिक्रिया देकर उत्साह प्रदान किया। धन्यवाद।
#राजकुमार जैन राजन
चित्रा प्रकाशन, आकोला-322205
जिला-चित्तोड़गढ़ (राजस्थान)
मो. 09828219919
Nyc…
Very nice
Very nice,
Very nice Rajan ji, keep it up
Pap aur punya ki bat dharm se kya taluk rakhti he yah bat bahut achchhi tarah samjaya gaya he.badhai
Very nice sir
वाह, बहुत बढ़िया।एक अच्छा आर्टिकल।सुख और पुण्य के तथ्यों की बारीक जानकारी से अवगत कराया, इसलिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद। आपके अगले। आपके अगले आर्टिकल का इन्तज़ार रहेगा…
Great work sir ji best motivated story best wishes rahul jain kapasan
आदरणीय संपादक जी
(मातृभाषा.कॉम)
सादर नमस्कार
दी गई रचना ‘पाप करने के लिए पुण्य का चश्मा’ आध्यात्म से परिपूर्ण है और प्रेरणाप्रद प्रसंग है।
परन्तु गौरतलब बात यह है कि यह किस प्रकार की रचना है ?
यदि यह कहानी है तो इसके लेखक की चिंतनशीलता और आध्यात्म को नमन।
और यदि यह प्रेरक प्रसंग है तो इसका मूल स्त्रोत, भाषा और लेखक का जिक्र करना संकलन कर्ता या अनुवादक की नेक जिम्मेदारी बनती है।
और प्रकाशन से पहले यह सब जाँच परख करना संपादक की भी जिम्मेदारी बनती है।
लेखक और संपादक को कॉपीराइट कानून को मद्देनजर रखना चाहिए।
धन्यवाद।
वाह,सारतत्व से भरा लेख। बधाई।
वाह,सारतत्व से भरा उत्तम लेख, बधाई।
अति उत्तम कृति ।
बहुत बढ़िया। पुण्य व सुख को कायम रखने की जानकारी के लिए धन्यवाद। अगले आर्टिकल का इन्तज़ार रहेगा।
भाई राजन जी , बहुत ही उम्दा रचना ,जो मनोभावनाओं को अपने चरम पर ले जाने में सफल हुईं है ।आपकी लेखनी यूँ ही श्रेष्ठता के नवीन आयाम छूती रहै । बधाई।।।