ढूंढ रहा हूँ अपनी कविताओं को, भाड़े के कमरे के कोने–कोने में.. जहाँ कमरे के बाहर खोले गए, चप्पलों के संख्या के हिसाब से.. बढ़ जाता है किराया हर माह, ढूंढ रहा हूँ अपनी कविताओं को.. चावल,दाल और आटे के खाली कनस्तरों में, बेटी के दूध की बोतल में.. जिसमें […]
kumar
आज सुबह सड़क किनारे, बारिश के पानी से लबालब गंदी बस्ती में कुछ नंग-धड़ंग मासूम से दिखते बच्चों को कूड़े के ढेर में पड़ी जूठन के लिए मुहल्ले के भूखे खूंखार कुत्तों से लोहा लेते देखा। कुछ बुजुर्गों को उघाड़े बदन, खून से रिसते घावों के साथ टूटी चारपाई पर लोट-पोट होते देखा, स्वस्थ भारत में योगा करने की असफल कोशिश कर रहे थे शायद। इस सबके बीच नशामुक्त भारत की सशक्त नारियों को उनके बेरोजगार पतियों के हाथों लहूलुहान होने का एक दृश्य अकस्मात ही चौंधियाईं आंखों के सामने से तेजी से निकल गया। वहीं इलाज के अभाव में, मृत पत्नी को कंधे पर ले जाते उस युवक ने अकस्मात ही मेरे अंतस को झकझोर कर रख दिया। `सबका साथ सबका विकास` के नारे की हकीकत कुछ इस तरह मेरे सामने से गुजर जाएगी, ऐसी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी तेज कदमों के साथ इस अनछुए भारत को वहीं छोड़कर नज़रें झुकाकर मैं वापस इक्कीसवीं सदी के अपने सपनों के भारत की ओर लौट पड़ा। #मनोज कुमार यादव Post Views: 671
नही हैं छाया पेड़ों की, जो है उसका कर रहा हूँ नाश नाम मेरा विकास। औद्योगिकीकरण की चादर ओढ़े, घूमूं छोटे–बड़े शहरों में हरियाली है दुश्मन मेरी लगाता हूँ कारखाना,कर जंगल साफ़, संग प्रकृति खेल रहा हूँ ख़्वाब है मेरा अंधविकास, नाम मेरा विकास। कारखानों से निकले रासायनिक प्रदार्थ, देता हूँ नदियों में डाल जल प्रदूषण में है योगदान, लक्ष्य है महाविकास चाहे हो मानवता का ह्रास, प्रकृति को नियंत्रित करूँगा है मेरा ये थोथा अभिमान, नाम मेरा विकास। वृक्षों से ऊँची है इमारतें अपार, घर–घर में वाहन हैं दो–चार वायु विषैली जीवन नर्क समान मशीनें करेगी काम-धाम आलस्य का होगा अधिकार, बन जाएगा नाकारा इन्सान.. नाम मेरा विकास। है विनाशक यंत्र,अणु–परमाणु बम, संहारक सम्पूर्ण मानवता का अविष्कार किया कई देशों ने, वर्चस्व स्थापित,शक्ति–दर्शाने को प्रयोग हुआ मिट जाओगे नाम मेरा विकास।। […]