इक्कीसवीं सदी का भारत

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manoj yadav

आज सुबह सड़क किनारे,
बारिश के पानी से लबालब
गंदी बस्ती में कुछ नंग-धड़ंग
मासूम से दिखते बच्चों को
कूड़े के ढेर में पड़ी जूठन के लिए
मुहल्ले के भूखे खूंखार कुत्तों से
लोहा लेते देखा।
कुछ बुजुर्गों को उघाड़े बदन,
खून से रिसते घावों के साथ
टूटी चारपाई पर लोट-पोट होते देखा,
स्वस्थ भारत में योगा करने की
असफल कोशिश कर रहे थे शायद।
इस सबके बीच नशामुक्त भारत की
सशक्त नारियों को उनके बेरोजगार
पतियों के हाथों लहूलुहान होने का
एक दृश्य अकस्मात ही
चौंधियाईं आंखों के सामने से
तेजी से निकल गया।
वहीं इलाज के अभाव में,
मृत पत्नी को कंधे पर ले जाते
उस युवक ने अकस्मात ही
मेरे अंतस को झकझोर कर रख दिया।

`सबका साथ सबका विकास`
के नारे की हकीकत कुछ इस तरह
मेरे सामने से गुजर जाएगी,
ऐसी मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी
तेज कदमों के साथ इस अनछुए
भारत को वहीं छोड़कर
नज़रें झुकाकर मैं वापस
इक्कीसवीं सदी के अपने
सपनों के भारत की ओर लौट पड़ा।

      #मनोज कुमार यादव

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