सदियों से चंद बूंदें आँसूओं की, पलकों पर आकर थमी हैं… जाने-अनजाने किस्से कितने, पैबस्त हैं उनमें। सुलगती रातों में, विरह के मारों की… झुलसती रुहों के घुटे-घुटे से नगमे, कितने जज्ब हैं। पूस की सिहरन, जेठ दुपहरी बनती… बसंत फागुन बनते, सावन भादो सूखे। जिस्म पथ बन उजड़ गए, […]