प्रकृति और हम

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avdhesh
प्रकृति स्वयं में सौम्य सुशोभित,सुन्दर लगती है।
देख समय अनुकूल हमेशा,सोती-जगती है॥
जब मानव की छेड़खानियाँ,हद से बढ़ जाती।
जग जननी नैसर्गिक माता,रोती बिलखाती॥
लोभ मोह के वशीभूत हो,जब समता घायल।
बिन्दी पाँवों में गिर जाती,माथे पर पायल॥
अट्टहास कर मानव चुनता,जब उल्टी राहें।
महामारियाँ हँसकर गहतीं,फैलाकर बांहें॥
चेचक हैजा प्लेग पीलिया,कर्क रोग टीबी।
रक्तचाप से पीड़ित बापू,माँ-बच्चे बीबी॥
सूर्य कोप से जलती धरती,जलता है अम्बर।
कहीं बाढ़,सूखे का आलम,जीना है दूभर॥
भूमि कम्प से हिलती वसुधा,पेड़ों में पतझड़।
हरित प्रभावों से मुरझाती,जीवन आशा जड़॥
आबादी के बोझ तले भू,दबकर अकुलाती।
जन घनत्व की कठिन वेदना,रोकर सह जाती॥
जलविहीन नदियों से पानी,बादल न पाए।
प्यासी भू पर बोलो कैसे,पानी बरसाए॥ ।
अतुल सम्पदा का दोहन कर,मुस्काए थे हम।
आँख मूँदकर कछुए जैसे,भूले थे हर ग़म॥
बढ़ता जाय प्रदूषण प्रतिपल,मानव के कारण।
मानव ही लाया विनाश को,मानव ही तारण॥
पंच भूत को मान साक्षी,कर लेंगे ये प्रण।
पर्यावरण बचाव हेतु हम,जीतेंगे हर रण॥
भू ध्वनि वायु रसायन जल में,मत खोना जीवन।
चलो उगाकर पौधे निशदिन,है बोना जीवन॥
कहता कवि ‘अवधेश’ संतुलित,हो वसुधा अम्बर।
स्वच्छ रखेंगे सारी दुनिया,जैसे अपना घर॥
                                                               #अवधेश कुमार ‘अवध’

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