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‘हम भारत के लोग’ से शुरू होने वाले हमारे संविधान की प्रस्तावना में आगे कहा गया है कि हम अपने लिए एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना का संकल्प लेते हैं। २६ जनवरी १९५० से लागू हुए इस संविधान में हमने लिए गणराज्य या गणतंत्र का चुनाव तो कर लिया लेकिन देश की हर गली हर चौराहे पर खड़ा गण अपने तंत्र से बार-बार सवाल कर रहा है कि क्या हम भारत को वाकई एक मुकम्मल गणतंत्र बना पाए। एक ऐसा गणराज्य जिसमें सचमुच गण अर्थात आमजन सर्वोपरि हो और देश का शासन जनता की इच्छा से चलता हो। जनता की इच्छा से शासन चलना तो दूर क्या हम संविधान में अपने नागरिकों को दिए गये स्वतंत्रता,समानता,अभिव्यक्ति, कलात्मकता,शिक्षा,स्वास्थ्य और रोजगार के अधिकार की रक्षा कर पाए। यदि हाँ, तो देश में अरबपतियों के संख्या सिर्फ १०१ ही क्यों है ? देश में प्रति वर्ष अर्जित की जाने वाली कुल सम्पत्ति के ७३ प्रतिशत हिस्से पर केवल १ प्रतिशत अमीरों का ही कब्जा क्यों है ? इन अमीरों की आमदनी एक साल में आश्चर्यजनक रूप से १३ प्रतिशत बढ़ जाती है और गणतंत्र में जिसे ‘गण’ कहा गया है,उस आम आदमी को रोटी,कपड़ा, मकान,शिक्षा,रोजगार,स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं के लिए दिन-रात संघर्ष करना पड़ता है। एक तरफ शिक्षित बेरोजगारों की लम्बी कतारें हैं,और दूसरी तरफ लाखों पद खाली पड़े हैं। सरकार ने नई भर्तियों पर अघोषित रोक लगा रखी है। तदर्थ संविदाकर्मियों से कम वेतन पर काम लेकर उनका शोषण किया जा रहा है,क्या इसी का नाम गणतंत्र हैं ? अमीरों के बच्चे तो ऊंचा अनुदान देकर महंगे स्कूल में प्रवेश पा जाते हैं लेकिन गरीबों के पल्ले पड़ते हैं बदबूदार और सीलन भरे कमरों वाले स्कूल,जहाँ शिक्षा तो दूर, शिक्षक के नियमित दर्शन हो जाएं यही बड़ी बात है। जिस देश में किसान कर्ज से तंग आकर आत्महत्या कर रहे हों, भूखे लोग ‘आधार’ कार्ड के अभाव में कंट्रोल का अनाज न मिलने के कारण भूख से दम तोड़ रहे हों और महिलाएँ आबरू लुटने के डर से घर से निकलने में सकुचाने लगी हों,उस देश को गणतंत्र दिवस का उत्सव उल्लास के पर्व के रूप में मनाना चाहिए या गमगीनियत के स्यापे के रूप में,यह तो मैं नहीं जानता लेकिन इतना अवश्य जानता हूँ कि जहाँ सच बोलने वालों का गला पकड़ने वाले देशभक्तों (!) की फौज हर क्षण तैनात खड़ी रहती हो,वहां अभिव्यक्ति की आजादी का उपयोग करने की हिम्मत आखिर कौन दिखाएगा ? कलात्मक अभिव्यक्ति की आजादी इस देश में कितनी है इसका अंदाजा तो आपको एक महाकाव्य पर आधारित फिल्म की फजीहत देखकर लग ही गया होगा। जहाँ सब-कुछ तंत्र की मनमानी से चल रहा हो और नाम उस बेबस,लाचार, कमजोर और मासूम गण का हो जो एक ऐसे राज्य का राजा है जिसमें उसके पास अधिकार के नाम पर पांच साल में एक बार तमाम बुरे लोगों में से किसी कम बुरे को चुनने का अधिकार हो,क्या इसी का नाम गणतंत्र है ? ६८ सालों में तो पौधा भी वृक्ष बन जाता है और बच्चा भी दादा -नाना बन जाता है,तो फिर यह प्रश्न उठना लाजमी है कि,भारत का गणतंत्र आखिर कब परिपक्व होगा ?
#डॉ. देवेन्द्र जोशी
परिचय : डाॅ.देवेन्द्र जोशी गत 38 वर्षों से हिन्दी पत्रकार के साथ ही कविता, लेख,व्यंग्य और रिपोर्ताज आदि लिखने में सक्रिय हैं। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है। लोकप्रिय हिन्दी लेखन इनका प्रिय शौक है। आप उज्जैन(मध्यप्रदेश ) में रहते हैं।
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