लफ्ज़ 

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satindar
लफ्ज़ दर लफ्ज़ लफ़्ज़ों को सिलता  हूँ,
अपने अंदर के डर को राम- राम करता हूँ।
अपने डर को सुइयाँ चुभोते  रहता हूँ,
ऐबों की उठ्ठक-बैठकें गिनता रहता  हूँ।
माँ की शॉल से ठंड को भगा  देता हूँ,
मय छूता नहीं दूध आब-सा  पीता हूँ।
कोसे-कोसे आटे की बू रुला  देती  है,
मूँगफली काजू मानकर सेंक  देता हूँ।
पीर के दिन से मैं चुप-सा हो जाता हूँ,
इतवार आते-आते ख़ामोशी बन जाता हूँ।
मज़ाल है! कोई होली पे रंग लगा दे मुझे,
कला की किताब में रंग ख़ुद  भरता हूँ।
बंदर से इंसा हुए तो तुझे  सालों हो  गए,
ख़ुदा कहता है-बता मैं कहाँ  मिलता  हूँ।
हिदायत देने वाले जुमले कहाँ  मिलते हैं,
मैं तो रास्तों पर लालटेन लिया फिरता हूँ।
दिल कब से कह रहा है तू भी बड़ा हो जा,
मैं अब भी किताबों में मोर पंख रखता हूँ॥
                                                      #सतिंदर सिंह
परिचय : सतिंदर सिंह का जन्म २९ जुलाई १९८५ का है। एम.कॉम. की शिक्षा प्राप्त की है,और शिक्षक हैं। आप उत्तर प्रदेश के ललितपुर में रहते हैं। लिखना आपका शौक है।

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