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‘चाहतें’ सदा इतिहास गढ़ती हैं,
दिल की किताब कोरी वे पढ़ती हैं।
चाहा था सिया को राम ने,
राधा को श्याम ने।
मीरा भी बावरी बनी,
रटन मोहन के नाम में।
चाहत न जब पैदा हुई,
थी दिल के मकान में।
राह प्रेय-श्रेय दिखते न,
थे जीवन प्रगति मुकाम में॥
चाहतें चारपाई से गई
बनाने विमान तक।
जगाई मशाल जागृति,
की सिंधु आसमान तक॥
चाहतें ही कभी चिट्ठी तार,
कभी टेलीफोन बनाई।
चाहतें ही मोबाइल नवल,
इन्टरनेट है लाई॥
अच्छे के संग साथ होती
है बुरी भी चाहतें।
दुनिया को जबरन आग में
झोंकती रही है चाहतें॥
रावण कंस ही नहीं केवल,
हुआ महाभारत अतीत में।
गेहू के संग घुन पिस गए
सुयोद्धन की प्रीत में॥
यवनों ने मेरे देश को,
हरदम हर तरह से लूटा।
ऱाजाओं के परस्पर द्वेष,
नसीब था देश का फूटा॥
कत्लेआम हुई आवाम हिन्दु,
घुसपैठियों के हाथ से
मंदिर देवालय टूटे असंख्य,
पूछो मध्य इतिहास से॥
चाहते सिकन्दर को लिया,
हिन्दुस्तान लाकर दम।
पौरस के पौरूष ने दिया,
बढ़ने आगे नहीं कदम॥
मरे कितने ही लोग-सैनिक,
दोनों ही ओर के।
दोनों ही महाबली थे,
उन्नीस बीस जोर के॥
बर्बाद हुए बीसवीं सदी के,
दो महायुद्ध में नस्ल।
लाभकारी होती नहीं,
कभी अहंकार की फसल॥
सैंतालीस-पैंसठ-इकहत्तर हमसे,
लड़ाई लड़ी है पाक ने !
हार मिली है हर बार मंसूबे,
जल गए खाक में॥
आईएसआई के आतंक से,
आज संसार त्रस्त है।
हैवानियत है शर्मशार जिससे,
कहता मजहब परस्त है॥
अच्छे बुरे सब काम धंधे,
है चाहत करा रही।
लिखवा रही है चाहतें,
है चाहत पढ़ा रही॥
#विजयकान्त द्विवेदी
परिचय : विजयकान्त द्विवेदी की जन्मतिथि ३१ मई १९५५ और जन्मस्थली बापू की कर्मभूमि चम्पारण (बिहार) है। मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के विजयकान्त जी की प्रारंभिक शिक्षा रामनगर(पश्चिम चम्पारण) में हुई है। तत्पश्चात स्नातक (बीए)बिहार विश्वविद्यालय से और हिन्दी साहित्य में एमए राजस्थान विवि से सेवा के दौरान ही किया। भारतीय वायुसेना से (एसएनसीओ) सेवानिवृत्ति के बाद नई मुम्बई में आपका स्थाई निवास है। किशोरावस्था से ही कविता रचना में अभिरुचि रही है। चम्पारण में तथा महाविद्यालयीन पत्रिका सहित अन्य पत्रिका में तब से ही रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। काव्य संग्रह ‘नए-पुराने राग’ दिल्ली से १९८४ में प्रकाशित हुआ है। राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति विशेष लगाव और संप्रति से स्वतंत्र लेखन है।
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