हिन्दी की गरिमा का समेकित स्वर मातृभाषा उन्नयन संस्थान
भारत सदा से ही आस्था और क्रांति प्रधान राष्ट्र रहा है। सैंकड़ो क्रान्तियों का जनक और परिचालक हमारा देश वर्तमान दौर में भी क्रांतिधर्मा है। क्रांति का सार्वभौमिक नियम है कि जनभावनाओं को साथ में लेकर जनता के हित में अपना स्वर मुखर करे। इसी तरह से, भारत की आज़ादी के पहले ही एक क्रांति अपना अस्तित्व तलाश रही थी, उसी के माध्यम से भारत भर में एक सूत्रीय संपर्क स्थापित हो सकता था। वह क्रांति हिन्दी भाषा के अस्तित्व को भारत में सर्वमान्य करते हुए स्थापित करने का उद्देश्य लेकर सन् 1918 से अस्तित्व में आई। क्रांति के जनक राष्ट्रपिता महात्मा गांधी थे और 100 वर्ष बाद उसी इंदौर शहर से एक क्रांति का बिगुल बजा। इस आंदोलन का उद्देश्य वही रहा जो गांधी जी ने अपने क्रांति के दौर में स्थापित किया था कि हिन्दी भाषा को भारत की राष्ट्रभाषा के रूप में मान्यता प्रदान कर देश भर में हिन्दी के अस्तित्व को बनाया जाए।
किसी देश की अपनी भाषा से ही उस देश की संस्कृति से परिचय होता है और संस्कारों का पल्लवन भी स्थानीय भाषा से होता है। मातृ कुल परिवेश की भाषा ही मातृभाषा कहलाती है और मातृभाषा के साथ-साथ देश की पहचान जिस भाषा से होती है, उसे राष्ट्रभाषा माना जाता है। राष्ट्रभाषा की आवश्यकता और अनिवार्यता के मद्देनज़र संवाद और संपर्क के प्रथम कारक में हिन्दी भाषा का अस्तित्व उभर कर आया। दशकों से हिन्दी भाषा के स्वाभिमान, स्थायित्व और जनभाषा के तौर पर स्वीकार्यता का संघर्ष जारी है। उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में भावनात्मक क्रांति का शंखनाद हो चुका था। उस समय भारत की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक स्थिति अत्यन्त दयनीय हो चुकी थी। देश में होने वाले आन्दोलनों से जन-जीवन प्रभावित हो रहा था। इसी बीच, भारत की राष्ट्रीयता और राष्ट्रीय आंदोलनों के लिए एक भाषा की आवश्यकता सामने आई और उसी दौरान हिन्दी को बतौर जनभाषा स्वीकार्यता भी प्राप्त हुई। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में सामाजिक, धार्मिक ही नहीं, राजनीतिक आंदोलनों में हिन्दी मुख्य भाषा सिद्ध हुई, इस प्रकार हिन्दी को व्यापक जनाधार मिला। राष्ट्रीय भावना जगाने हेतु हिन्दी को संपर्क भाषा के रूप में प्रयोग किया गया। विभिन्न व्यक्तियों और संस्थानों द्वारा हिन्दी-प्रयोग हेतु आन्दोलन के रूप में कार्य किया गया। बिहार ने सबसे पहले अपनाई थी हिन्दी, बनाई थी राज्य की आधिकारिक भाषा। बिहार देश का पहला ऐसा राज्य है, जिसने सबसे पहले हिन्दी को अपनी आधिकारिक भाषा माना है। इस आवश्यकता के संदर्भ में डॉ. अम्बा शंकर नागर का कहना था कि- “सन् 1857 का आंदोलन दासता के विरुद्ध स्वतंत्रता का पहला आंदोलन था। यह आंदोलन यद्यपि संगठन और एकता के अभाव के कारण असफल रहा, पर इसने भारतवासियों के हृदय में स्वतंत्रता की उत्कट अभिलाषा उत्पन्न कर दी। आगे चलकर जब भारत के विभिन्न प्रांतों में स्वतंत्रता के लिए संगठित प्रयत्न आरंभ हुए तो यह स्पष्ट हो गया कि बिना एक जनभाषा के देश में संगठित होना असंभव है।” और जनभाषा के लिए जिस भाषा का चयन किया गया, वो हिन्दी रही क्योंकि तब भी हिन्दी के अतिरिक्त कोई अन्य भाषा ऐसी नहीं थी, जो भारत के अधिकांश भूभाग पर बोली जाती हो या अधिकांश जनता की जानकारी व प्रयोग की भाषा हो।
लाला लाजपतराय, लोकमान्य बालगंगाधर तिलक, पण्डित मदनमोहन मालवीय, महात्मा गांधी, राजर्षि पुरुषोत्तमदास टंडन, काका कालेलकर, सेठ गोविन्ददास, स्वामी दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, विनोबा भावे आदि तमाम सभी हिन्दी के समर्थकों द्वारा हिन्दी हितार्थ कई आंदोलन किए गए, सहभागिता की गई। आज़ादी के तराने गाने में हिन्दी का अद्भुत योगदान रहा। किन्तु आज़ादी के बाद भारत में ही हिन्दी की अवहेलना में भी कोई कसर नहीं छोड़ी गई। तथाकथित राजनैतिक कारणों का हवाला देकर दक्षिण भारत में हिन्दी भाषा का विरोध आरम्भ हुआ, जबकि वे बख़ूबी जानते थे कि उनकी कुल आबादी भी हिन्दी के समर्थकों और जानने-बोलने वालों का एक तिहाई हिस्सा भी पूरा नहीं कर पाएगी। उसके बावजूद भी हिन्दी को अन्तोगत्वा राष्ट्रभाषा का शिखर कलश नहीं बनाया गया, न ही भारत में इस भाषा के स्वाभिमान की रक्षा की गई। न ही हिन्दी को रोज़गारोन्मुखी भाषा के तौर पर विकसित करने की दिशा में सरकारों द्वारा कोई प्रयास किए गए। अकादमियों, संस्थानों, केंद्रीय हिन्दी निदेशालय आदि द्वारा प्राप्त बजट को महज़ पुस्तक प्रकाशन हेतु सहायता, आयोजन, पुरस्कार वितरण, सम्मान आदि में ख़र्च किया गया, किन्तु धरातलीय स्तर पर हिन्दी कमतर ही बनी रही।
क्रांतिकारी लोकमान्य तिलक ने नागरी प्रचारिणी सभा, काशी के दिसम्बर, 1905 के अधिवेशन में कहा था- “देवनागरी को ‘राष्ट्रलिपि’ और हिन्दी को ‘राष्ट्रभाषा’ होना चाहिए।” भारत की आज़ादी के पहले 28 मार्च 1918 को जब महात्मा गांधी इंदौर में हिन्दी साहित्य समिति की नींव रखने आए थे, तब उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का स्वप्न सभी के साथ साझा किया। आज भारत की आज़ादी के सात दशक से अधिक बीत गए और फिर एक शताब्दी के बाद, इसी इंदौर शहर से एक क्रांति का जन्म हुआ, जो वर्तमान समय में हिन्दी प्रचार और हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए एक मज़बूत आंदोलन के रूप में उभरा, देश और दुनिया में जिसे ‘मातृभाषा उन्नयन संस्थान’ के नाम से जाना जाता है। बीते वर्षों में देश की राजधानी दिल्ली में वर्ल्ड बुक ऑफ़ रिकॉर्ड्स, लंदन के द्वारा इसी संस्थान को ग्यारह लाख से अधिक लोगों के हस्ताक्षर हिन्दी में बदलवाने के लिए विश्व कीर्तिमान भी प्रदान किया गया था।
इस संस्थान की शुरुआत वर्ष 2016 में महज़ एक वेबसाइट मातृभाषा.कॉम से हुई, जिसका तब केवल एक उद्देश्य था कि हिन्दी के नवोदित व स्थापित रचनाकारों को मंच उपलब्ध करवाना, जहाँ उनका लेखन नि:शुल्क प्रकाशित हो और पाठकों की पहुँच में आए। माँ अहिल्या की नगरी व मध्य प्रदेश की आर्थिक राजधानी इंदौर से युवा पत्रकार एवं सॉफ़्टवेयर इंजीनियर डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ ने मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम की नींव रखी, जो हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का संकल्प लेकर हिन्दी भाषा के प्रचार के सशक्त आंदोलन के रूप में सामने आया। एक अन्तरताने (वेबसाइट) से शुरू हुई यात्रा ने लोगों को अपनी भाषा, अपनी हिन्दी में हस्ताक्षर करने का संकल्प दिलवाना आरम्भ किया। इस आंदोलन के संरक्षक डॉ. वेदप्रताप वैदिक जी, अहद प्रकाश जी, चौथा सप्तक में शामिल कवि राजकुमार कुंभज जी हैं। इस संस्थान का प्रथम उद्देश्य हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना है। साथ ही, हिन्दी को रोज़गारमूलक भाषा बनाना है, हिन्दी में रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवाना, भारतीय भाषाओं के सम्मान को अक्षुण्ण बनाए रखना, जनता को जनता की भाषा में न्याय मिले, साहित्य शुचिता का निर्वहन सम्मिलित है।
स्पष्ट लक्ष्य और सुनियोजित कार्यशैली के चलते महज़ तीन वर्ष में ही संस्थान देश के लगभग बीस से अधिक राज्यों में अपनी इकाई बना चुका है, और जिससे अब तक लगभग इक्कीस लाख से अधिक लोग जुड़ गए हैं, जिन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु समर्थन दिया व अपने हस्ताक्षर हिन्दी में करना आरंभ कर दिए हैं। आज मातृभाषा उन्नयन संस्थान का अपना पुस्तक प्रकाशन प्रकल्प संस्मय प्रकाशन है, समाचारों के लिए ख़बर हलचल न्यूज़, मासिक साहित्य ग्राम पत्रिका, साहित्यकार कोश है। साहित्यकार कोश में भी देश के विभिन्न प्रान्तों के लगभग दस हज़ार से अधिक साहित्यकारों की जानकारी सम्मिलित की जा चुकी है। मातृभाषा.कॉम पर लिखने वालों की संख्या तीन हज़ार से अधिक व 9 लाख पाठकों का वृहद् परिवार है। संस्थान द्वारा ‘हर मंदिर बने ज्ञानमन्दिर’, ‘हर ग्राम-हिन्दीग्राम’, ‘आदर्श हिन्दीग्राम’, ‘पुस्तकालय अभियान’ आदि कई अभियान संचालित किए जा रहे हैं, जिसके माध्यम से सतत् हिन्दी सेवा का अभिनव कार्य जारी है।
मातृभाषा उन्नयन संस्थान के द्वारा कवि सम्मलेन, संवाद कार्यक्रम, जन संपर्क इत्यादि कार्यक्रमों के माध्यम से लाखों लोगों को हिन्दी भाषा से जोड़कर भाषा के प्रचार-प्रसार में महत्ती भूमिका निभाई जा रही है। वैसे तो देश में कई संस्थाएँ सक्रियता से हिन्दी सेवा में जुटी हैं, किन्तु उन सभी संस्थाओं के गुलदस्ते में मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम की विशिष्ट पहचान है। हिन्दी का स्वाभिमान स्थापित करने के लिए संस्थान द्वारा कर्मठ हिन्दी-योद्धाओं को तैयार किया जा रहा है, जो विभिन्न भू-भाग पर हिन्दी प्रचार का कार्य कर रहे हैं व हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने हेतु समर्थन प्राप्त कर रहे हैं। आज हिन्दी को जनभाषा या राष्ट्रभाषा बनाने के लिए सम्पूर्ण देश का साथ आना आवश्यक है, इसलिए संस्थान के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ द्वारा जनसमर्थन अभियान भी संचालित किया जा रहा है, जिसके अंतर्गत वे साहित्यिक, राजनैतिक, सामाजिक हस्तियों, सांसद, विधायकों आदि से भेंट कर, उनके माध्यम से जनजागृति व हिन्दी समर्थन के स्वर मुखर कर रहे हैं।
मातृभाषा उन्नयन संस्थान, मध्यप्रदेश के इन्दौर से वर्ष 2018 से पंजीकृत संगठन है। यह भारत में हिन्दी की स्थिति मज़बूत करने हेतु अहिन्दीभाषी क्षेत्रों में व अन्य भारतीय भाषाओं का हिन्दी के साथ समन्वय स्थापित करते हुए हिन्दी को रोज़गार मूलक भाषा बनाने की दिशा में कार्य करता है। यह भारत में अनिवार्य शिक्षा में हिन्दी को शामिल करने का पुरज़ोर समर्थन करता है। साथ ही, यह विभिन्न सरकारी एवं ग़ैर सरकारी सेवाओं के लिए अंग्रेज़ी की अनिवार्यता का भी विरोध करता है। हिन्दी के प्रचार के साथ हिन्दी में हस्ताक्षर को महत्त्व देते हुए संगठन देशव्यापी हस्ताक्षर बदलो अभियान का संचालन कर रहा है।
मातृभाषा उन्नयन संस्थान का एकमात्र उद्देश्य यही है कि ‘हिन्दी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा’ बनाया जाए। इसके लिए संस्थान द्वारा पूरे समर्पण के साथ प्रयास किए जा रहे हैं। भारत सहित विदेशों के भी हिन्दी के हर नवोदित रचनाकार को लेखन का मंच दिया जा रहा है, ताकि विश्व पटल पर हिन्दी चमके। इसी के साथ, मातृभाषा उन्नयन संस्थान का नाम वैश्विक फ़लक पर दर्ज हो गया। पाँच वर्ष पहले मातृभाषा उन्नयन संस्थान के बैनर तले डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’ ने हिन्दी में हस्ताक्षर के लिए प्रेरित करने का संकल्प लिया। 2017 में की गई मेहनत का असर बाद के दो सालों में नज़र आने लगा। इस अभियान का असर यह हुआ कि पहले जो लोग बैंक से लेकर अन्य सरकारी कामकाज में अंग्रेज़ी में हस्ताक्षर करते थे, वे न सिर्फ़ हिन्दी में हस्ताक्षर करने लगे हैं बल्कि संस्थान के अभियान का समर्थन करने के साथ प्रधानमंत्री से हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने का आग्रह भी कर चुके हैं। हिन्दी ग्राम की इकाईयों में ‘मातृभाषा उन्नयन संस्थान (पंजी)’, मातृभाषा.कॉम और संस्मय प्रकाशन, साहित्यकार कोश शामिल हैं। फ़िलहाल हिन्दी के प्रति देशभर में चिन्ताएँ बढ़ रही हैं, इसे देखकर लगता है कि हिन्दी पुन: भारत को विश्व गौरव बना सकती है। आज ऐसी संस्थाओं के माध्यम से ही हिन्दी भाषा को अपना गौरव पुनः प्राप्त हो सकेगा। क्योंकि आज़ादी के बाद जब राजभाषा अधिनियम के आलोक में हिन्दी और अंग्रेज़ी भाषा को एक तुला से समान तोला गया, तब हिन्दी के साथ हुए अन्याय की पीड़ा नज़र आने लगी। आज देश को दौलत सिंह कोठारी आयोग द्वारा निर्मित शिक्षा नीति के अंतर्गत त्रिभाषा फ़ॉर्मूला भी अपनाने की आवश्यकता है। तभी मातृभाषा, हिन्दी व एक विदेशी भाषा या अंग्रेज़ी की दक्षता हासिल होगी। हिन्दी के सम्मान के लिए कार्यरत मातृभाषा उन्नयन संस्थान व हिन्दीग्राम जैसे संस्थानों की परम आवश्यकता भी है, जो हिन्दी के वैभव में अभिवृद्धि भी करें व उसे उसका सम्मान दिलवाएँ। आज भारत में कहीं भी यदि हिन्दी भाषा का प्रचार नज़र आ रहा है तो उसमें कहीं न कहीं केवल एक नाम मातृभाषा उन्नयन संस्थान सबलता से उभरकर आता है, हज़ारों हिन्दी योद्धाओं की अनथक मेहनत और लाखों हिन्दी प्रेमियों का साथ इस संस्थान को न केवल मज़बूत कर रहा है बल्कि हिन्दी को पूर्णत: प्रचारित करते हुए उसे अपने स्वाभिमान राष्ट्रभाषा के शिखर पर स्थापित करने की दिशा में अद्भुत कार्यरत भी है। इन्हीं सब कारणों से आज हिन्दी प्रचार का पर्याय मातृभाषा उन्नयन संस्थान बन चुका है।
देश की संसद में बैठे सैंकड़ो सांसदों का समर्थन प्राप्त कर मातृभाषा उन्नयन संस्थान लगातार हिन्दी का पक्ष मज़बूत करता जा रहा है। हज़ारों हिन्दी प्रेमियों, साहित्यकारों, हिन्दी पत्रकारों और राजनेताओं का समर्थन हासिल कर संस्थान लगातार हिन्दी को प्रचारित-प्रसारित कर रहा है। हिन्दी के मंचीय कवियों को संस्थान से जोड़कर हिन्दी कवि सम्मेलनों के माध्यम से हिन्दी भाषा का प्रचार किया जा रहा है। यह सार्वभौमिक सत्य है कि हिन्दी भाषा को जितना प्रचार हिन्दी कवि सम्मेलनों, हिन्दी फ़िल्मों एवं हिन्दी गीतों के माध्यम से मिला, उतना कहीं नज़र नहीं आता, मातृभाषा उन्नयन संस्थान भी इसी तर्ज पर फ़िल्म एवं विज्ञापन उद्योग में दखल रखते हुए हिन्दी के रचनाकारों को रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवा रहा है और कवि को कवि सम्मेलनों के माध्यम से आय सुनिश्चित करवाने की दिशा में कार्यरत है।
मातृभाषा उन्नयन संस्थान से लाखों हिन्दी प्रेमी प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े हैं, ऐसे संस्थानों के कारण आज वैश्विक पटल पर हिन्दी के सम्मान की स्थापना सम्भव हो पा रही है, जो प्रशंसनीय भी है। संस्थान की सफलता में कई वैश्विक संस्थाओं ने अपनी सहभागिता प्रदान करनी शुरू कर दी है, विश्व के कई देशों में स्थित अन्य हिन्दी सेवी संस्थाओं ने मातृभाषा उन्नयन संस्थान से जुड़ना स्वीकार किया और मातृभाषा उन्नयन संस्थान के साथ मिलकर वैश्विक रूप से हिन्दी भाषा का प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। निकट भविष्य में भी मातृभाषा उन्नयन संस्थान की सक्रियता से हिन्दी भाषा के महत्त्व को वैश्विक रूप से स्थापित किया जा सकता है। हिन्दी के सम्मान में हर भारतीय मैदान में जुटें क्योंकि इसी तरह हिन्दी का परचम सम्पूर्ण राष्ट्र में लहराएगा।