चारुचन्द्र की चाँदनी मनोहर,
शरद रितु में जब-जब छाती।
मेरे अनुरागी मन में प्रिया
याद तेरी बरबस आती ॥
होती कठिन कठोर व्यथा,
सहना या कहना घोर प्रिये।
चक्रवात-सा विकल विवश,
अजब अनोखा दर्द लिए॥
बैरन बन जाती है रजनी,
तनहाई में तेरी हूक जगा!।
प्रीत पंथ पर हरदम सजनी
स्मृति की जले नित्य दिया॥
सुलभ कहॉ उन लम्हों में,
दुनिया में कहीं मन जाए ?
पुस्तक गीत मीत न भाते,
मन मधुकर तुमको चाहे॥
चंचल नयन हंसता मुखड़ा,
छवि ही मानस में आती है।
शरद रितु की चारू चन्द्रिका,
भी नहीं ताप मिटाती है॥
#विजयकान्त द्विवेदी