संस्कार तुम्हीं से पाते हैं ,
सब प्यार तुम्हीं से पाते हैं।
ममता के सुंदर उपवन में,
मीठी लोरी के मधुबन में।
आँचल की ठंडी छाँव तले,
मेरा बचपन देखो पाँव चले।
गिर-गिर कर उठना सीखा है,
सब माँ से पढ़ना सीखा है।
सब सुनकर के चुप रहती है,
धीरे से यह कह देती है।
सच्चे शब्दों का वरण करो,
मत मानवता का हरण करो।
धैर्य से तुम धनवान बनो,
मेरी लाडो बहुत महान बनो।
बिन बोले सब सुन लेती है,
बाधा के हल बुन लेती है।
जैसे-जैसे ये साँझ ढले,
मेरी माँ की आँखें राह तके।
रात अंधेरी में कोई,
कुछ देख नहीं जब पाता है।
गाड़ी की गति से माँ का मन,
भाई की पहचान बताता है।
मैं सोच-सोच हैरान हुई,
ये कैसी प्राण में जान हुई!
जब याद मुझे माँ करती है,
सपने में आकर कहती है।
माँ बूढ़ी है मिल जा आकर,
कुछ बचा–कुचा ले जा आकर।
माँ याद मुझे भी आती है,
आती है, बड़ा सताती है।
पर दिए वचन कैसे भूलूँ!
इस माँ की चरण धूली छू लूँ।
बस नैन–नक्श में अंतर है,
थोड़ा–सा अक्स में अंतर है।
बलिहारी मुझ पर जाती है,
भर- भर कर प्यार लुटाती है।
माँ, इस माँ में भी मुझको तो,
बस ख़ुशबू तुम्हारी आती है।
बस ख़ुशबू तुम्हारी आती है।
#चंद्रमणि ’मणिका’
दिल्ली