ज़िंदगी को गुलशन की तरह सजाना पड़ता है ।
गिरदाब से क़श्ती को फ़िर बचाना पड़ता है ।।
सक़ाफ़त यही है कि ख़ुलूस से जीयें हम ।
रिश्तों को अदब से फ़िर निभाना पड़ता है ।।
ज़िद पर अड़ जाये अगर कोई दुश्मन ।
रौब शख़्सियत का फिर दिखाना पड़ता है ।।
सफ़र में मिल जाये अगर कोई भूख़ा ।
अपने हिस्से का उसको फिर खिलाना पड़ता है ।।
भूल जाते हैं अक़्सर वो अपनी हदों को ।
ग़ुस्ताख़ी का सबक़ उनको फिर सिखाना पड़ता है ।।
दिल में अल्फ़ाज़ बहुत हैं मोहब्बत के ।
लबों पर लाकर उन्हें फिर बताना पड़ता है ।।
ग़ुज़र जाती है हर शाम तन्हाई में “काज़ी” ।
करके तसव्वुर उनका दिल को फिर बहलाना पड़ता है ।।
डॉ. वासिफ़ काज़ी ,इंदौर