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पुस्तक समीक्षा……………….
प्राचीनकाल से बिहार संस्कृति और साहित्य के सन्दर्भ में समृद्ध रहा है और आज भी इसका कोई सानी नहीं है। समय-समय पर समाज के पथ प्रदर्शक और विरासत के संवाहकों को पैदा करने की जिम्मेवारी यहाँ की उर्वर भूमि ने ली है। ग़ज़ल के आसमान में बहुतेरे जुगनुओं के बीच यकायक पूनम का चाँद निकल आया,जिसकी रश्मियों से साहित्य आलोकित है। विज्ञान और साहित्य के पलड़े द्वय में सामंजस्य बनाए रखने वाले इस फ़नकार का नाम है डॉ.मनोज कुमार।
२०१६ तक सैकड़ों शोध पत्रों और दर्जनों उच्चस्तरीय सम्मान से अपनी झोली भरने वाले डॉ. कुमार युवा वैज्ञानिक के रुप में जाने जाते थे। अपार ऊर्जा को किसी और राह की भी तलाश थी,तलाश थी हृदय में उमड़ते भावों को आकार देने की। अपनों और परायों के दिल में उतरकर प्रतिपुष्टि पाने की,जिससे भावों को सुघड़ स्वरुप दिया जा सके। विज्ञान की चुनौतियों को सहर्ष स्वीकारने की आदत ग़ज़लों को देखकर मचल उठी। ग़ज़लों में तर्क-वितर्क,मनन-चिंतन,बहर- मापनी,रदीफ़-काफिया,मिसरा-मक्ता एक चुनौती बनकर लुभाती हुई आई और इस वैज्ञानिक को शायर बना दिया। ग़ज़ल में कलम आजमाते ही सराहना की बाढ़ आ गई। पत्र-पत्रिकाओं ने समुचित स्थान दिया तो कलमकार और पाठक वर्ग ने हौंसला आफ़जाई की। जब बढ़-चढ़कर उत्साहवर्द्धन का आहार नवोदित ग़ज़लकार को मिला तो ग़ज़लकार ने ‘नूर -ए-ग़ज़ल’ के सम्पादन में पूरी ऊर्जा झोंक दी।
तीन पीढ़ियों के ४७ प्रतिनिधि ग़ज़लकारों को एक सूत्र में पिरोना,१९६ ग़ज़लों को चुनकर सजाना,अल्पावधि में नव अनुभव के साथ संपादन जैसे गुरुतर दायित्व को निभाना,२१५ पृष्ठीय पुस्तक को छपवाना बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न एवं बड़े जज़्बे की ही की बात है। अतएव कमियों का होना भी स्वाभाविक है,जिसे संपादक ने खुले दिल से स्वीकारा है। बहर के अनुसार या महत्ता के आधार कर पुस्तक को कुछ खंडों में बाँटा जा सकता था। ग़ज़लकार परिचय को उसकी ग़ज़लों के साथ भी रखा जा सकता था।
ग़ज़ल के कुछ चुनिंदा शेर देखते हैं जो ‘नूर-ए-ग़ज़ल’ को दूसरों से ज़ुदा करते हैं। डॉ. मनोज कुमार का यह शेर दिल को झकझोर देता है-
‘नए घुँघरू की ये झंकार है,फिर भी यक़ीनन,
किसी बेबस को कोठे पर नचाया जा रहा है। ‘
भ्रूण हत्या पर संजीव कुमार शर्मा की लेखनी रो पड़ी-
‘चढ़ा दी सूलियों पर सिर्फ झूठी शान की ख़ातिर,
गिरा दी कोख से हैं बेटियाँ सम्मान की ख़ातिर।’
नारी सशक्तिकरण को चांदनी पाण्डेय ने कुछ यूँ नुमाया किया-
‘वो जिस अना पे बहुत ही गुरूर है तुझको,
उसे मैं पांव के नीचे कुचल भी सकती हूं।’
पर्यावरण की कराह को देवेन्द्र माझी ने मुखर किया-
‘राम की गंगा हुई मैली जो मांझी,
साफ़ कर लहरों का दामन आज धोकर।’
पारिवारिक महत्व को उमाकान्त निगम ‘सहज’ ने कुछ ऐसे समझाया-
‘अगर माता-पिता का तू सहारा हो नहीं सकता,
तो सुन,जन्नत क्या दोज़ख़ भी तुम्हारा हो नहीं सकता।’
इसके साथ ही बहुतेरे जाने माने ग़ज़लकारों की उपस्थिति पुस्तक को महत्वपूर्ण बनाती है। श्रृंगार,मिलन, बिछोह,वफ़ा,ज़फ़ा,देशभक्ति,नारी
अवसरपरस्ती,शिक्षा,समस्या एवं पर्यावरण एवं जागरुकता से ‘नूर-ए- ग़ज़ल’ का नूर कायम है। संपादक के समुचित प्रयास से शीर्षक,पाठक,शायर, ग़ज़लकार एवं ग़ज़ल के साथ पूर्ण न्याय नुमाया है। उम्मीद ही नहीं,बल्कि यकीन है कि इसे पढ़कर आपकी मानसिक भूख जरूर मिटेगी। समीक्षक भी ‘नूर-ए -ग़ज़ल’ का एक जुगनू है।
#अवधेश कुमार ‘अवध’
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