भारतीय संविधान में मूल अधिकारों का हनन एक संगीन मामला बन जाता है जब परिवार में किसी की मौत हो और उसके अंतिम दर्शन तक न हो।मीडिया और सोशल मीडिया पर दर्द विदारक रिपोर्टो ने क्रूरतापूर्ण रवैये के इस प्रचंड रूप का आये दिन वर्णन किया है।लेकिन सिस्टम का इसपर भी कोई प्रभाव पड़ता नही दिखता।वैसे देखा जाय तो ऐसे कितने परिवार होगे जिनके अपने अस्पताल गये तो फिर उनसे पुनः भेंट तक नही हुई।यह कैसी व्यवस्था और कैसा इलाज क्या देश की संविधान पीठ मूक दर्शक बनी रहेगी?क्या यह मानवाधिकार का हनन नही है?जब तमाम राज्य सरकारें और केन्द्र सरकारें जानती थी कि कोरोना विस्फोट कभी भी हो सकता है तो पहले से ऑक्सीजन और दवाईयों स्टाक क्यों नही किया गया?कई ऐसे प्रश्न हैं जो आने वाले समय में पूछे जाएँगें।
स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता राज्य सरकारों की कलई खोलता नजर आने लगा है ।बहुत सारी समस्याएं हैं जो की चरम पर है। देश की तमाम सरकारें इस महामारी से निपटने के लिए कोई इंतजाम पहले से क्यों नहीं किया? सरकारें सिर्फ चुनावी रैली करेंगी जबकि देश सुनसान होता जा रहा है क्या यही लोकतंत्र है? देश की संविधान पीठ की कई फैसले को भी राज्य सरकारे नही मानती क्या संवैधानिक व्यवस्था का सरकार पालन नही करेंगी जिसमें नागरिको की रक्षा सुरक्षा औषधि और मानवाधिकार की रक्षा के साथ न्याय सर्वोपरि है।
आज देश मे तकरीबन 4 लाख नये मरीज और 3 हजार रोजाना मौत आखिर किसकी नाकामी है।क्या जब सबकुछ ऑन लाइन हो सकता है तो चुनाव जैसी जटिल प्रक्रिया को हरी झंडी क्यों दिया गया? आज बिहार मजदूरों की वजह से नहीं अपितु चुनाव की वजह से कोरोना का हब बना हुआ है? धीरे धीरे यह जहर फैलता चला गया ।तमिलनाडू की भी यही स्थिति है और आने वाले समय में बंगाल और असम की भी यही स्थिति होने वाली है? जब पिछले एक वर्षों से सभी शिक्षण संस्थानों को बंद कर दिया गया और ऑनलाइन किया गया तो प्रचार और रैली जैसी विशाल भीड़ को रोकने की व्यवस्था क्यों नही की गयी? प्रचार ऑन लाइन क्यों नही किया गाय? क्या देश में जान माल की सुरक्षा सर्वोपरि है या चुनावी प्रक्रिया?
आशुतोष
पटना बिहार