अभी कुछ दिन पहले सरकार ने बचत योजनाओं पर ब्याज दर कम करने का एक ऐसा फैसला लिया था जिसे चौबीस घंटों से भी कम समय में ही वापस लेने की घोषणा वित्तमंत्री को करनी पड़ी। कहा जा सकता है कि यह देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ा ऐसा फैसला था जो कि शायद राजनैतिक कारणों से वापस ले लिया गया।
किंतु यहाँ यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है कि इस फैसले को वापस क्यों लिया गया अपितु यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि इस फैसले को लाने का औचित्य क्या था। वर्तमान परिस्थितियों में भले ही कोविड काल से उपजी स्थिति को इस प्रश्न के उत्तर स्वरूप प्रस्तुत करने के प्रयास किए जाए लेकिन फिर भी इस घटना ने भारतीय कर प्रणाली पर एक नए विमर्श की आवश्यकता को जरूर महसूस करा दिया है। इस विमर्श में जाने से पूर्व कर संबंधी कुछ बुनियादी तथ्यों पर विचार करना आवश्यक हैं।
दरअसल कर अथवा टैक्स सरकार द्वारा देश के नागरिकों से ली जाने वाली एक निर्धारित रकम होती है जिसका उपयोग देश और देशवासियों की तरक्की, उनके कल्याण एवं सुविधाओं के लिए किया जाता है। एक न्यायपूर्ण कर व्यवस्था देश को आर्थिक उन्नति और उसके नागरिकों को खुशहाली के मार्ग पर ले जाती है।
भारत में अगर कर प्रणाली की बात करें तो मनुस्मृति और वेदों से लेकर कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इसका स्पष्ट एवं सुव्यवस्थित उल्लेख मिलता है। भारत के प्राचीन ग्रंथों में राजा के द्वारा लिए गए कर एवं राजस्व पद्धति की व्याख्या राजा के शासन संबंधी सेवाओं के वेतन के रूप में किया गया था।
वैदिक काल में भी ग्राम वासियों द्वारा कृषि एवं पशु संपति पर एक निर्धारित राशि बलि के रूप में चुकाई जाती थी। कृषकों से प्राप्त राशि को बलि तथा विक्रय वस्तु से प्राप्त राशि को शुल्क कहा जाता था जो सामान्यतः उसके मूल्य का छटवां अथवा आठवां हिस्सा होता था। वहीं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी विस्तारपूर्वक राजकीय आय के स्रोतों का वर्णन किया गया है। मौर्यकाल में भू राजस्व समेत अनेक शुल्क नगरवासियों पर लगाए जाते थे जैसे,
1.षड भाग: छठवें अंश के रूप में प्राप्य राज कर
- सेना भक्त: युद्धकाल में राज्यादेश से प्रजा जनों द्वारा प्राप्त खाद्य पदार्थ
3.बलि: करों के अतिरिक्त अन्य उपहार के रूप में प्राप्त धन
- कर: अधीनस्त राजाओं से मिलने वाला कर
5.: उत्संग: उत्सव आदि अवसरों पर भेंट स्वरूप प्राप्त वस्तुएं
6.पाश्व: नियत कर से अधिक की वसूली
- पारीहीणक: पशुओं द्वारा खेत आदि की हुई हानि के कारण पशु स्वामी को दिए गए अर्थ दंड से उपलब्ध धन
- औपयानिक: राजा को उपहार में प्राप्त धन
- कौष्टयेक: खुदाई से सहसा प्राप्त धन।
करों की इतनी वृहद व्याख्या करने के साथ साथ कौटिल्य ने राजा और प्रजा दोनों के लिए यह भी स्पष्ट किया है कि राज्य कर आदि का अधिकारी है तो प्रजा के प्रति उसके कर्तव्य भी हैं। और प्रजा कर देने के लिए कर्तव्यबद्ध है तो उसके अधिकार भी हैं, अगर राजा कर लेने के बाद भी अपने कर्तव्यों का ठीक से निर्वहन नहीं करता तो प्रजा उसके प्रति अपनी निष्ठा छोड़ सकती है।
मध्यकालीन भारत में विभिन्न रियासतों का वर्चस्व था जो अपने अपने हिसाब से प्रजा से कर लेती थीं। सल्तनत काल से लेकर मुग़ल काल मेँ यह कर छठवें हिस्से से बढ़कर आय के आधे हिस्से तक पहुंच गया था।
आधुनिक भारत में आयकर प्रणाली 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार पर आए वित्तीय संकट के कारण 1860 में अंग्रेजों द्वारा लाई गई थी। मजेदार बात यह है कि भारत के तत्कालीन ब्रिटिश वित्तमंत्री जेम्स विल्सन ने भी आयकर की शुरूआत करते हुए मनु को उदृत किया था।
1886 में भारत में इनकम टैक्स एक्ट पास हुआ था तब से उसमें कई बार बदलाव किए गए। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात 1918 में फिर 1922 में नया एक्ट लाया गया। स्वतंत्र भारत में वर्तमान में जो आयकर कानून चल रहा है वो 1 अप्रैल 1962 को लागू किया गया था। भारत में दो प्रकार के कर लिए जाते हैं प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कर। 2017 में जीएसटी लागू कर के अप्रत्यक्ष करों में क्रांतिकारी बदलाव लाकर कर सुधारों की तरफ एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया था। प्रत्यक्ष करों में भी सरकार हर बजट में कुछ बदलाव करती रहती है।
लेकिन इसके बावजूद जब विश्व के देशों की टैक्स कंपेटेटिव इंडेक्स 2020 की रिपोर्ट आती है तो 36 देशों की इस सूची में न्यूज़ईलैंड अमेरिका ब्रिटेन जापान फ्रांस जर्मनी पुर्तुगाल जैसे देशों के नाम हैं लेकिन भारत का कोई स्थान नहीं है। जब व्यक्तिगत आयकर वसूलने वाले देशों से तुलना की जाती है तो वर्ल्ड बैंक की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में यह 37%, न्यूज़ईलैंड में 39% और भारत मे 35.88% है। जीएसटी की बात की जाए तो भारत में 28% के साथ यह 140 देशों की तुलना में सबसे ज्यादा है27 % के साथ दूसरे स्थान पर अर्जेंटिनिया है जबकि यूके और फ्रांस में यह 20% तो सिंगापुर में 7% है।
इन आंकड़ों से यह तो स्पष्ट है कि कर वसूली के मामले में भारत कहीं विकसित देशों के समक्ष तो कहीं उनसे आगे है। लेकिन जब नागरिक सुविधाओं की बात आती है तो भारत अंतिम पायदानों पर है। क्योंकि अमेरिका जापान न्यूज़ईलैंड और यूरोपीय देश जैसे अन्य देश अपने नागरिकों से ऊँचे दरों पर कर अवश्य लेते हैं लेकिन उसी अनुपात में सुविधाएं भी देते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य,यात्रा, वरिष्ठ नागरिकों को पेंशन सहित अनेक बुनियादी योजनाएं चलाई जाती हैं जिनसे उनके नागरिकों का जीवन सुगमता से व्यतीत हो सके। जबकि भारत अपने नागरिकों को स्वास्थ्य सेवाएं देने के मामले में 195 देशों की सूची में 154 वें पायदान पर आता है। हालात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि हम बांग्लादेश नेपाल घाना और लाइबेरिया जैसे देशों से भी पीछे हैं। यह स्थिति तब है जब भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में आयुष्मान योजना लागू की गई है।। जबकि इज़राइल, जापान से लेकर लगभाग सम्पूर्ण योरोपीय उपमहाद्वीप के देशों में हेल्थकेयर की सुविधाएं या तो मुफ्त हैं या फिर नागरिक पूरी तरह से इंश्योर्ड हैं।
जबकि भारत में जिस वर्ग से टैक्स वसूला जाता है उसे देश के वित्तमंत्री द्वारा यह सलाह दी जाती है कि वो अपना ख्याल खुद रखे। उस वर्ग के लिए आय पर कर, संपत्ति पर कर,नगर निगम के विभिन्न कर, कैपिटल गेन्स पर कर, टोल टैक्स, रोड टैक्स जैसे करों की भरमार है। इससे भी चिंताजनक बात यह है कि भारत की जनसंख्या के लगभग एक फीसदी लोग ही आयकर देते हैं। लेकिन अप्रत्यक्ष करों के रूप में माचिस जैसे छोटी सी वस्तु से लेकर वाशिंग मशीन या गाड़ियों जैसे लक्ज़री वस्तुओं की खरीद पर देश का हर नागरिक अपना योगदान देता है। पेट्रोल, शराब गुटका जैसी वस्तुएँ तो सरकार की आय का मुख्य स्रोत हैं हीं। इन परिस्थितियों में जब बचत खातों पर मिलने वाली ब्याज दर कम करने का फैसला सरकार की ओर से लिया जाता है जो वर्तमान में भले ही वापस ले लिया गया हो लेकिन कुछ समय बाद इसे फिर से लागू करने का प्रयास किया जाए इससे इनकार नहीं किया जा सकता। ऐसे फैसले लेते समय सरकार को ध्यान रखना चाहिए कि इन बचत खातों में अधिकतर माध्यम वर्ग ही निवेश करता है। यही बचत उसके बुढ़ापे या बुरे समय की पूंजी होती है क्योंकि उसके बुढ़ापे के लिए सरकार की तरफ से ना तो कोई पेंशन योजना है और ना ही उसकी बीमारी के लिए कोई आयुष्मान योजना है। अपनी ही बचत से वो अपना और अपने परिवार का भविष्य सुरक्षित करता है। उन्हीं बचत योजनाओं पर सरकार के ऐसे फैसले खासतौर पर कोरोना काल में उन परिवारों और बुजुर्गों के लिए किसी वज्रपात से कम नहीं हैं जिनकी आय का एकमात्र साधन यही योजनाऐं हैं।
इन हालातों में ऐसे फैसले लेने के बजाए सरकार इस दिशा में सोचे कि भारत की कर व्यवस्था जो आज़ादी के पूर्व अंग्रेजों द्वारा लागू की गई थी उसमें हमारे देश की वर्तमान जरूरतों को ध्यान में रखकर मूलभूत बदलाव किए जाएँ। क्योंकि भारत पर आयकर से संबंधित जो कानून ब्रिटीशरों द्वारा 1857 के विद्रोह की सज़ा के रूप में हम पर थोपे गए थे उनमें से कोई कानून ब्रिटेन ने स्वयं अपने यहाँ लागू नहीं किए। आज जब हम आज़ादी की 75 वीं वर्षगाँठ पर देश भर में अमृत महोत्सव मना रहे हैं तो हमारे पास स्वयं की एक न्यायोचित एवं सर्वकल्याणकारी कर नीति होनी चाहिए।
डॉ नीलम महेंद्र