बहुत दुख है सागर को
जो किसीको दिखाते नहीं।
फिर भी सभी के दुखोको
समेट लेता है अपने अंदर।
और सुकून देता है सदा
अपनी ठंडी लहरो से।
तभी तो गम समुद्रतट पर
स्वंय ही हँसने लगता है।।
जो लहरो को देखता है
समझ उसको आता है।
सागर की हकीकत को
स्वंय मेहसूस करता है।
और सोचता है की सागर
शांत क्यों नहीं रहता।
क्योंकि जमाने की गंदगीको
अपने अंदर रखता है।।
सागर के तट पर बहुत
आंनद आता है सुबह शाम।
जो प्रेमी प्रेमिकाओ को
बहुत ही लुभाता है।
और मोहब्बत के सागर में
डूबने को बुलाता है।
और स्वागत खुद सागर
बाहों में लेकर करता है।।
सभी नदियों को अपने
दिलमें जगह देता है।
जो जिस रूप में होती
उसे वो अपना लेता है।
और उसकी सारी गंध को
अपने अंदर लेकर मिटा देता।
और छोटी-2 नदियों को
बना देता वो सागर।।
जय जिनेंद् देव
संजय जैन (मुंबई)