मुंबई लौटते – लौटते आशंकाओं का बाजार गर्म हो चुका था। इस प्रकार अचानक मेरे लुप्त हो जाने से मेरे शुभचिंतक, मित्र और परिचित आशंकित हो उठे थे। कुछ लोगों के मन में यह सवाल घुमड़ रहा था कि सोशल मीडिया पर निरंतर सक्रिय रहने वाला यह व्यक्ति जो भाषा और राष्ट्रीय मुद्दों पर सोशल मीडिया पर सक्रिय रहता है, वह अचानक ओझल कैसे हो गया? और वह भी इतने दिन तक? शायद कोई व्यस्तता होगी। लेकिन इतने दिन दोनों फोन लगातार बंद आ रहे हैं। ऐसा तो कभी न हुआ था। कहीं कुछ तो गड़बड़ है।
दफ्तर में मेरे सहयोगी अमित दुबे ने मुझे फोन लगाया और बार-बार प्रयास करने पर भी जब संपर्क न सधा तो उसके मन में खटका हुआ। उसने दफ्तर में दूसरों को बताया। चिंतित चेतना मालवणकर ने तो मेरी दिवंगत पत्नी के पुराने फोन पर जानकारी के लिए भी कोशिश की, लेकिन वह बंद मिला। दफ्तर के साथियों द्वारा संपर्क के प्रयास विफल होने पर उन्होंने मेरे साथी और मित्र भाई अनंत श्रीमाली, से संपर्क किया गया। खबर तो उन्हें भी कोई न थी। आखिरकार श्रीमाली जी ने राजभाषा विभाग के सेवानिवृत्त वरिष्ठ तकनीकी निदेशक केवल कृष्ण जी को दिल्ली में संपर्क किया। केवल जी पहले हमारे दिल्ली निवास के निकट रहते थे, भोर-भ्रमण पर पिताजी से मुलाकात भी होती थी। उन्होंने चिंतित होते हुए श्रीमाली जी से कहा, अरे ऐसा कैसे हुआ, मैं तो अब वहाँ तो नहीं रहता, लेकिन मैं अनके घर जाकर पूछताछ करता हूँ। श्रीमाली जी ने मुंबई में हमारे घर के निकट रहने वाले संयोग साहित्य के संपादक मुरलीधर पांडे जी को फोन करके कहा कि वे मेरे घर जाकर पता करें। घर पर बच्चों से मिलकर उन्हें मेरी खैरियत की जानकारी मिली। और फिर आशंकित कई परिचितों से दफ्तर के लोगों तक यह खबर पहुंची तो शुभचिंतकों की जान में जान आई। उधर दिल्ली में संपर्क सधने तक मेरी बड़ी बहन, पिताजी भी फोन न लगने से परेशान थे। हमारे क्षेत्र यानी भायंदर में भाई नरेंद्र गुप्ता, जो हमारी जेसल पार्क चौपाटी कल्याण समिति के महासचिव हैं, कई दिन तक लगातार संपर्क न हो पाने के कारण परेशान थे। उन्होंने तमाम परिचितों को फोन लगा कर मेरे बारे में पूछा लेकिन किसी को कोई खबर न थी। लौटने पर उन्होंने बताया कि उनके मस्तिष्क में तमाम तरह की आशंकाएँ उत्पन्न हो रही थीं। संपर्क न होने पर वे कल घर पहुँचने वाले थे।
अब फोन चालू होने पर व्हाट्सएप खोलने पर तत्काल विशाखापत्तनम में हिंदी प्राध्यापक आरूणि त्रिवेदी का संदेश आ गया। ‘सर, आप कहां थे, मैंने कितनी बार आपको फोन लगाया।‘ और भी न जाने कितने ही परीचित और मित्र जो संपर्क न होने से अपने अपने तरीके से कयास लगा रहे थे। गुप्त जी गुप्त हो गए या लुप्त हो गए ? ऐसे में अनेक दुष्चिंताएँ अनायास ही घुमड़ने लगती हैं। मुंबई लौट कर फोन चालू होते ही कोलकाता विश्वविद्यालय के पूर्व विभागाध्यक्ष, बड़े भाई प्रो. अमरनाथ जी का फोन आया, ‘अरे भाई, मैं तो आपका फोन लगाते – लगाते थक गया। आप न तो व्हाट्सएप समूह पर दिखे और न ही आपका फोन लगा। मैं तो बहुत चिंतित था, आखिर आप कहां खो गए थे।’, ‘हां, मैं खो गया था।’ मैंने सीधा सरल उत्तर दिया। ‘अरे, ऐसा कैसे?’ जितने लोग उतने ही प्रश्न।
मैंने कई देशों की यात्रा की और यदि उत्तर पूर्व के तीन-चार राज्यों को छोड़ दें तो भारत में कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत का कोई ऐसा राज्य संघ शासित प्रदेश नहीं, जहाँ मैं नहीं गया। घुमक्कड़ प्रवृत्ति का होने के चलते जिंदगी भर भटकता ही रहा। सुदूर दक्षिण के राज्यों में भी कई बार जाना हुआ। यह इत्तफाक ही कहा जा सकता है कि उत्तर भारत का होने के बावजूद भारत के प्रमुख राज्य बिहार में मेरा कभी जाना न हुआ था। एक बार बिहार के पूर्व भाग यानी झारखंड मैं बाबा बैजनाथ के दर्शन के लिए देवघर जाना हुआ था। लेकिन वह भी जाना नहीं बल्कि स्पर्श करना ही कहा जा सकता है। दोपहर को पहुंचे और रात की गाड़ी से वापस। यूँ भी कह सकते है कि बिहार ने कभी हमें बुलाया ही नहीं। ऐसा भी नहीं कि कभी बिहार जाने के बारे में सोचा नहीं। जब कामिनी जीवित थी तब भी और उसके बाद भी कई ज्योतिषाचार्यों आदि ने संकट निवारण के लिए गया में पूजा करवाने की सलाह दी थी। कामिनी चली गई, लेकिन हर बार कोई न कोई ऐसा कारण बना कि गया जाना न हो सका। इस वर्ष कोरोना-काल भी उसमें एक बाधा बना। लेकिन मैंने निश्चय कर लिया था कि किसी भी तरह, इस वर्ष मैं वहाँ अवश्य जाऊँगा।
दफ्तर के कई सहयोगियों ने नालंदा सहित आसपास के दर्शनीय स्थल देखने की सलाह दी थी। पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग की प्रोफ़ेसर बहन मंगला रानी को जब मेरे पटना आने की ख़बर मिली तो उन्होंने मुझे फोन किया, ‘भाई जी आप पटना आ रहे हैं क्या? ‘गया जाना है, वापसी में एक दिन पटना रुकूँगा ।’ मैंने संक्षिप्त सा उत्तर दिया। ‘भाई जी, हो सके तो कार्यक्रम कुछ आगे – पीछे कर लें, मैं उस समय एक शादी के लिए दिल्ली में रहूँगी। मैं वहाँ होती तो आपको पटना घुमाती, विश्वविद्यालय में आपके सम्मान में कार्यक्रम भी रखती, बैठते ढेरों बातें होती।’ बहन मंगला जी ने थोड़ा निराश होते हुए कहा। मैंने कहा, ‘कोई बात नहीं बहनजी, आप जब आदेश करेंगी मैं पहुंच जाऊँगा।’ मेरे बिहार प्रवास की खबर सुन कर कई मित्रों ने मुझे वहाँ विशेष सावधान रहने की सलाह भी दी। रेलवे के पूर्व वरिष्ठ राजभाषा अधिकारी, धीरेंद्र झा साहब, जो आजकल बड़ौदा में बस गए हैं, जब उनका फोन आया तो उन्होंने मुझे वहाँ सचेत रहने की विशेष ताकीद करते हुए, छोटी- छोटी बातों का ध्यान रखने को कहा। अब जबकि बिहार जा रहा हूँ तो महात्मा बुद्ध की बुद्धत्व – स्थली और नालंदा के विश्वविख्यात विश्वविद्यालय के अवशेषों से रूबरू न होऊं तो बिहार जाना सार्थक न हो सकेगा। हमारे कार्यालय के हमारे सहयोगी सुभाष ने कहा, ‘सर थोड़ा आगे राजगीर भी है, वहाँ नालंदा के अवशेष, जरासंघ का अखाड़ा, जमीन से निकलते गर्म पानी के स्रोत हैं। वहीं थोड़ा आगे जैन तीर्थ स्थल पावापुरी भी है। वहाँ जरूर जाइएगा।’ अब आया हूँ तो कम से कम यह तो देख कर जाऊँ। मन में तमाम विचार, योजनाओं और कल्पनाएँ चलचित्र की तरह चल रही थीं।
जैसे ही एक झटके के साथ विमान हवाई पट्टी से टकराकर तेजी से दौड़ने लगा तो तंद्रा टूटी। मुंबई से चलकर पटना पहुँचा हमारा विमान लोकनायक जयप्रकाश नारायण हवाई अड्डे पर उतर रहा था। बाहर से ही हवाई अड्डे की टूटे से भवन को देखकर थोड़ी निराशा हुई। लेकिन समझते देर न लगी कि यह तोड़फोड़ इसे बेहतर रूप देने के लिए की गई है। हवाई अड्डे में घुसते ही एक बड़े से हॉल में यात्रियों का भारी हज्जूम चौंकाने वाला था। और उसीमें सामान पहुंचाने वाली दो बेल्ट भी स्थापित थीं। ऐसी भीड़ में कोरोना-काल के बावजूद भी थोड़ी दूरी बनाना तक मुश्किल था। बेल्ट पर कई उड़ानों की जानकारी थी लेकिन हमारी उड़ान की कोई जानकारी ही न थी । वहां खड़ी एक महिला जो कि किसी एयरलाइंस की कर्मचारी, जो स्वयं परेशान दिथ रही थी, मैंने उससे जानना चाहा कि हमारा सामान कब तक आ पाएगा, तो उसने कहा, ‘ सर अभी आराम से खड़े रहिए, कम से कम आधा घंटा या एक घंटा लग ही जाएगा, कुछ नहीं कह सकते।’ इतनी भीड़, जगह बहुत ही कम है और ऊपर से कई विमान एक साथ आने से यहां स्थिति बेकाबू सी है।’ मैं अपने मन में सोच रहा था कि अब जबकि राज्य में बड़ी संख्या में लोग विमान से यात्रा करने लगे हैं तो हवाई अड्डे का जीर्णोद्धार करने के बारे में किसी ने अभी तक कुछ किया कुछ क्यों नहीं ?
इस बीच मैंने भाई वीरेंद्र कुमार यादव फोन लगाकर अपने पटना पहुंचने की जानकारी दे दी। वीरेंद्र कुमार यादव जी पूर्व केंद्रीय मंत्री स्वर्गीय जगदंबी प्रसाद यादव जी के सुपुत्र हैं जो 25 वर्ष से अधिक समय तक सांसद थे। स्वर्गीय जगदंबी प्रसाद यादव जी को संसदीय राजभाषा समिति से उनके जुड़ाव और राजभाषा हिंदी के लिए उनकी विशेष योगदान के लिए याद किया जाता है। आमतौर पर नेताओं की छवि यह है कि वे मृदुभाषी होते हैं, लेकिन घाघ होते हैं, उनका ध्यान सेवा पर नहीं केवल मेवा पर होता है। हमारे मित्र यादव जी ठीक इसके विपरीत हैं। अपने पिता की तरह ही वीरेंद्र कुमार यादव जी राजनीति में तो है, लेकिन वे राजनीति से अधिक समय हिंदी सेवा में लगाते हैं। अखरोट की तरह बाहर से थोड़े अक्खड़ लेकिन भीतर पोष्टिक – स्वादिष्ट गिरी जैसे हैं। हम फोन पर अक्सर देर रात तक देश दुनिया के विभिन्न मुद्दों पर झगड़ रहे होते हैं। न ही वे अपनी बात से टस से मस होते हैं, और मैं भी कुछ कम नहीं, हरियाणवी जो ठहरा। लेकिन ऐसे मित्र बिरले ही मिलते हैं। जब भी मैं कहता कि मुझे गया जाना है, पता नहीं वहां कैसे क्या होगा तो वे अपने अक्खड़ अंदाज में कहते, ‘भैया आप को कितनी बार बता चुका हूँ कि सब हो जाएगा। आप चिंता मत कीजिए, आप सुनते ही नहीं है। आप हम पर विश्वास ही नहीं करते। मैंने जिलाध्यक्ष को बोल दिया है। उऩ्होंने पंडा जी को बोल दिया है, मेरी भी बात हो गई है। हमारी पार्टी के कार्यकर्ता हैं। अच्छे से पूजा करवा देंगे। जहाँ कहीं आपको जाना है वे आपको गाइड भी कर देंगे।’ वे निरंतर मेरे संपर्क में थे। जब तक मैं हवाई अड्डे से निकलता उऩ्होंने किसी से फोन पर पूछ कर मुझे बता दिया कि मीठापुर बस अड्डे से गया के लिए बस मिलेगी। काफी देर प्रतीक्षा करने के बाद जब हमारी उड़ान की सूचना बेल्ट पर नही आई तो भीड़ में घुसकर देखने लगा, डर था कि इस भीड़ में कोई सामान लेकर नौ-दो ग्यारह न हो जाए। देखा मेरा सूटकेस दूर से चला आ रहा है। सामान की प्रतीक्षा में दूर खड़े अपने कई सहयात्रियों को भी मैंने आवाज दे कर कहा, ‘सूचना तो नहीं लगी लेकिन हमारा सामान भी आ गया है, आकर ले लीजिए।’ सब कुछ राम भरोसे चल रहा था।
यह मेरे लिए क्षोभजनक था कि देश के इतने बड़े राज्य की राजधानी के हवाई अड्डे से भी दिल्ली मुंबई और अन्य महानगरों की तरह नियमित्त टैक्सी, ऑटो आदि की व्यवस्था नहीं थी। गया के लिए जाने वाली अच्छी और सीधी बसें भी नहीं थीं। गेट पर पूछने पर एक कर्मचारी ने कहा, ‘बाहर निकलने पर बायीं ओर बढ़ेंगे तो एक सरकारी बस खड़ी मिलेगी, जो आपको बस अड्डे पर छोड़ देगी।’ सामान घसीटते हुए पास ही बस तक पहुंच गया। दो-तीन यात्री ही बैठे थे। कंडक्टर ने कहा कि जैसे ही दस-बारह यात्री हो जाएंगे बस चल पड़ेगी। दस-बारह यात्री होने पर बस चालक सीट पर आ बैठा और बस चलने को तैयार हो गई। तभी सामने की सीट पर एक महिला जो नव विवाहिता सी लग रही थी, वह कई सूटकेस वगैरह के साथ बैठी थी। वह बार-बार अपने पति को फोन लगा कर बता रही थी कि बस चलने को तैयार है। पति बड़ी बेफिक्री से फोन पर कह रहे थे, बैठिए आते हैं। दस पंद्रह मिनट में, ज्यादा हो तो सामान नीचे उतार लेना। बस को चलती देख महिला ने मुझसे कहा, अंकल, ‘मेरे पति के आने में देर हो रही है और बस छूटने को है, जरा मेरा सामान नीचे उतरवा दीजिए।’ मैंने जैसे ही दो सूटकेस नीचे रखें, कंडक्टर ने पूछा ‘भाई सामान क्यों उतार रहे हैं आप’, मैंने कहा, ‘इनके पति के आने में समय है, इसलिए सामान उतरवा रहा हूँ। ‘बहन जी आप चिंता मत कीजिए, आपको लेकर ही जाएंगे। बस तो हम यूँ ही बस घरघरा रहे हैं, ताकि पैसेंजर आ जाएँ।’ कंडक्टर ने साफगोई से कहा- ‘अपने पति से कहिए कि वे जल्दी आ जाएँ।’ उनका सामान वापस बस में चढ़ा दिया गया। उधर महिला के मोबाइल की बैटरी खत्म हो रही थी और पतिदेव थे कि अपने किसी काम में व्यस्त और बेफिक्र। तब कंडक्टर ने मोर्चा संभाला और महिला से मोबाइल नंबर लेकर पतिदेव को फोन किया, लेकिन पतिदेव ने पहले तो फोन उठाया नहीं, और उठाया तो कंडक्टर कहा, ‘भाई साहब गाड़ी छूटने को है, जरा जल्दी कीजिए।’ ‘अरे भाई अभी आते हैं ना।’ पतिदेव ने जवाब दिया। मैं हैरान था कि कोई इस प्रकार बस में पत्नी को बैठाकर बड़ा बेफिक्र होकर कैसे कोई किसी काम में लगा हुआ है। बिहार की जीवन शैली का यह भी अपना एक अलग अंदाज़ था।
कंडक्टर अपनी सदाशयता की कहानियाँ सुनाते हुए सवारियों से पैसे ले रहा था। टिकिट की तो कोई बात ही न थी। आखिरकार बस पटना के मीठापुर बस अड्डे की तरफ बढ़ चली। उस बस ने सबको मीठापुर बस अड्डे के बाहर ही उतार दिया। बस अड्डे में तो जाने की जरूरत ही नहीं थी। सभी बसें तो बस अड्डे के बाहर सड़क पर ही खड़ी हुई थीं। अन्य राज्यों की तरह यहां राज्य परिवहन की सरकारी बसें नहीं दिखीं। जहाँ एक और यात्री अपने गंतव्य की बसों को ढूंढ रहे थे, वहीं निजी बसों के कंडक्टर यात्रियों को आवाज देकर बुला रहे थे। पूछने पर पता लगा कि बस गया के लिए मिलेगी और वहां से बौद्ध गया जाना होगा। जैसा कि आमतौर पर होता है की प्राइवेट बसों वाले जहाँ मुसाफिर दिख जाता है, वहीं बस रोक देते हैं। इस प्रकार रुकते – रुकाते बस गया की तरफ बढ़ने लगी। मुझे बताया गया था कि रास्ता करीब तीन घंटे का होगा लेकिन दो-ढाई घंटे बीतने पर भी आधे से अधिक रास्ता अभी बाकी था। कोरोना-काल के बावजूद बस में यात्री ठूंस-ठूंस कर भरे जा रहे थे। मेरे अलावा इक्का-दुक्का यात्री ही ऐसा चढ़ा जिसके चेहरे पर मास्क लगा हुआ था। मेरे मुंह पर लगा मास्क मेरे बाहरी होने की घोषणा कर रहा था।
सुबह करीब पटना हवाई अड्डे पर उतरने के बाद से लगातार सफर कर रहा था और और घड़ी की सुइयां 4:00 बजा रही थी। तभी बस एक तिराहे पर रुकी। पता लगा कि यह एक नियमित्त स्थानक है। कुछ मुसाफिर उतरे, कुछ चढ़े। कंडक्टर भी उतर कर गायब हो गया। सामने ही लघुशंका की व्यवस्था देख कर मैंने एक सहयात्री से जो मेरे साथ बौद्ध गया तक जानेवाला था. उसे कहा, ‘में जल्द ही आता हूं कंडक्टर को बता दीजिएगा।’ मैं चार-पांच मिनिट में जैसे ही लौटा तो देखा वहाँ तो कोई दूसरी ही बस खड़ी थी। मेरे तो होश ही उड़ गए। उस बस वाले ने कहा, ‘वह बस तो आगे निकल गई है। आगे देखिए, कहीं मिल जाए तो।’ मैं बदहवास सा दौड़ा। और काफी आगे जाने पर देखा कि वह बस सवारियां लेते हुए आगे की तरफ बढ़ रही है। गेट पर लटके कंडक्टर की मुझ पर नजर पड़ी, मैंने इशारा किया तो उसने बिना चेहरे पर कोई शिकन लाए बस को थोड़ा धीमा करवाया और मैं जैसे – तैसे बस में चढ़ा। मैंने थोड़ा आवेश में अपने सहयात्री से कहा, ‘आपको तो मैं बोल कर गया था, आपने कंडक्टर को बताया क्यों नहीं? ’ ‘मैंने कंडक्टर को कई बार कहा लेकिन उसने बस नहीं रुकवाई।’ सहयात्री ने जवाब दिया। ऐसा तो मैंने कभी, कहीं देखा सुना नहीं था। मुझे लग रहा था कि कंडक्टर के दिमाग में शायद कुछ दूसरी ही खिचड़ी पक रही थी। क्योंकि मेरा सारा सामान तो बस में ही था। लेकिन अब किया क्या जा सकता था?
यह समझ में आने लगा था कि यहां आने से पूर्व मित्रों ने जो चेतावनी दी थी, वह अनावश्यक न थी। थोड़ी ही देर में अंधेरा घिरने लगा। तब भान हुआ कि मैं भारत के पश्चिमी छोर से पूर्व की तरफ आ गया हूँ। यहाँ दिन जल्दी उगता है तो जल्दी ढलता भी है। सर्दियों के दिनों में तो यह जल्द और भी जल्द हो जाता है। करीब छह बजे जब गाड़ी गया बस अड्डे पर पहुंची तो अच्छा खासा अंधेरा घिर चुका था। मैं अपनी जैकेट फंसा कर और पीठ पर जैसे-तैसे बैग फंसा कर, बस से उतर कर, अपने कई सामानों को संभालते हुए उसी सहयात्री के साथ सामने सड़क की तरफ बढ़ा, उसे भी मेरी तरह बौद्ध गया ही जाना था। वह युवक एक डिज़ाइनर था जो गया के श्रीश्री रविशंकर आश्रम में कंप्यूटर पर डिजाइनिंग के काम के लिए जा रहा था। सड़क पर पहुंचते ही जेब में हाथ मारा तो पता लगा मेरा मोबाइल गायब हो चुका था। सहयात्री के साथ उल्टे पांव बस की तरफ बढ़ा तो देखा बस का ड्राइवर कंडक्टर दोनों वहीं मौजूद थे, बस भी वही खड़ी थी लेकिन मोबाइल वहाँ न था। दूसरे सहयात्री ने अपने मोबाइल से मेरे मोबाइल पर फोन लगाया तो पता लगा कि मोबाइल को स्विच ऑफ कर दिया गया है। कंडक्टर नें नाटकीय से अंदाज में हाथ नचाते हुए कहा, ‘देखिए साहब मेरे पास तो है नहीं, चाहें तो देख लें।’ इस प्रकार गया शहर नें वहाँ पहुंचते ही अपने अंदाज में मुझे अभिवादन कर दिया था।
मोबाइल खोने के दुख से ज्यादा बड़ी परेशानी यह थी कि अब मैं एक बहुत ही अनजान से इलाके में एकदम अकेला था। मेरे पास किसी का भी मोबाइल नंबर व पता नहीं था, जिससे कि मैं संपर्क कर सकूं। यहां तक की पूजा करवाने वाले पंडा जी का नंबर भी तो मोबाइल में ही था। केवल इतना था कि मोबाइल खोलने के पहले मैंने अपने होटल का पता पढ़ लिया था। मेरे सहयात्री को भी बौद्ध गया ही जाना था। टैंपो वाले ने बताया, ‘साहब इस समय यहाँ से टैंपो न मिलगा, बोद्ध-गया के लिए पहले यहां से हाईवे जाना पड़ेगा और हाईवे से दूसरा टेंपो मिलेगा जो बोद्ध-गया पहुंचाएगा।’ गया के बस अड्डे से भी बोद्ध-गया के लिए सीधा वाहन नहीं, जबकि बोद्ध-गया एक प्रमुख पर्यटन स्थल है, यह परेशानी का सबब तो था ही, आश्चर्यजनक भी था। रास्ते में टेंपो में एक लड़का मिला उसने मेरी परेशानी को समझा और मदद के लिए मेरा नाम व फोन नंबर वगैरह मुझसे लिया और अपना नंबर देते हुए कहा, ‘सर कोई दिक्कत हो तो फोन करना।’ लेकिन सुबह से जो भी घटनाएं घट रही थी, उसके बाद किसी मददगार पर भी भरोसा करना थोड़ा कठिन सा हो रहा था। शायद वह लड़का मेरी बात भांप गया और उसने कहा, ‘सर, चिंता मत कीजिए मैं विद्यार्थी हूँ और आप मुझ पर भरोसा कर सकते हैं। मैं आपकी मदद करने की कोशिश करूंगा।’ मेरे पास कोई और चारा भी तो न था। टेंपो वाले ने कहा था कि वह होटल के आगे उतार कर आगे बढ़ जाएगा लेकिन मुझे अंतिम पड़ाव पर उतार कर वहां पहुंचते ही उसने कहा आपका होटल तो यहाँ से बहुत आगे है। आपको वहाँ से दूसरा वाहन करना होगा। और उसने वहाँ पहुंच कर एक दूसरे टेंपो वाले से कहा, ‘साहब को ले जाइए, साहब इसे पचास रुपए दे देना।’ मैंने कहा आपने तो कहा था कि रास्ते में है। अब आप बात क्यों बदल रहे हैं, तो उसने कहा, ‘नहीं साहब, है तो आगे ही।’ लेकिन मुझे लगा, कहीं गड़बड़ है। मैंने वहां आसपास की जो दुकानें थी, वहाँ पूछा तो पता लगा कि जहाँ मैं खड़ा था वहां से करीब सो डेढ़ सौ मीटर पीछे उसी सड़क पर वह होटल था जहाँ से हम आगे आए थे। माजरा समझ में आ गया था कि वह टेंपो वाला मुझे दूसरे टेंपो वाले के सुपुर्द करके जा रहा था। जिसने मुझे होटल की जानकारी दी, उसने कहा, ‘आप कहें तो मैं आपको वहाँ होटल तक पहुँचा दूँ, मुझे बीस-पच्चीस रुपए दे देना।’ मुझे लगा कि हर कोई कुछ न कुछ झटकने की फिराक में है। अब जबकि बिना मोबाइल के मैं पूरी तरह दुनिया से अलग-थलग पड़ चुका था, यह स्थिति किसी मानसिक प्रताड़ना से कम न थी। आगे की कोई राह न सूझ रही थी। सोचा, जो होगा देखा जाएगा। कोई तो रास्ता निकलेगा ही। पचास कदम आगे बढ़ते ही बाईं तरफ पुलिस का थाना दिखा। हालांकि मोबाइल मिलने की तो कोई संभावना न थी, लेकिन सोचा कि पुलिस में रपट लिखवा कर कुछ कागज रख लिया जाए ताकि कल को किसी प्रकार की दुश्वारी का सामना न करना पड़े। मेरे गृह मंत्रालय के पहचान पत्र का सम्मान करते हुए पुलिस वालों ने एक आवेदन लेकर उसकी प्रति पर ठप्पा लगाकर मुझे दे दी। लेकिन यह भी जता दिया कि मोबाइल तो मिलने वाला है नहीं।
अब जबकि मोबाइल मेरे पास नहीं है तो मैं किसी से भी कैसे संपर्क कर पाऊँगा। यूँ तो गया में पंडा जी और इनके अलावा कई लोगों का संपर्क लेकर आया था और भाई यादव जी सहित कई अन्य मित्र भी थे। लेकिन प्रश्न तो यह था कि किसी से भी संपर्क करने का कोई मार्ग सूझ नहीं रहा था। थके कदमों से परेशान हाल मैं होटल की तरफ बढ़ रहा था। होटल के सामने पहुंचते ही होटल के बाहर ही खड़े एक सज्जन ने पूछा, ‘आप गुप्ता जी हैं? ’ मुझे लगा होटल मालिक या उसका मैनेजर है, मैंने कहा, ‘हाँ मैं ही हूँ।’, ‘अरे भाई, हम कितनी देर से आपको प्रतीक्षा कर रहे थे।, उस व्यक्ति ने कहा। होटल में पहुंचकर उसने बताया, ‘मैं पंडा शिवलाल हूँ, वीरेंद्र कुमार यादव जी ने आप को तलाशने के लिए मुझे यहाँ भेजा है। वे बहुत चिंतित थे और उन्होंने कहा यदि आप होटल नहीं पहुंचते हैं तो में उन्हें बताऊँ ताकि पुलिस को आपको तलाशने के लिए कहा जा सके।’ अब मेरी थोड़ी जान में जान आई। क्योंकि एक संपर्क सूत्र मिलने से कम से कम जब तक मैं वहां था तो बड़ी परेशानी नहीं होगी। पंडा जी के माध्यम से जल्द ही भाई वीरेंद्र कुमार यादव जी से संपर्क सध गया। उन्होंने लगभग आदेशात्मक लहजे में कहा, ‘गुप्ता जी, सबसे पहले पास में किसी मोबाइल की दुकान से नया मोबाइल ले कर नया सिम डलवा लें और अपना फोन शुरू कीजिए ताकि आपसे संपर्क बना रहे।’ और मैंने ठीक वैसा ही किया।
अब प्रश्न यह था कि बच्चों से और अन्य परिजनों और मित्रों आदि से संपर्क कैसे हो। यहाँ भी भाई वीरेंद्र कुमार यादव जी की समझदारी और प्रयासों ने रंग दिखाया। उन्होंने मेरे मित्र और भारतीय स्टेट बैंक नाशिक में राजभाषा प्रबंधक राहुल खटे जी से संपर्क किया और पूछा कि क्या आपके पास उनके बच्चों का नंबर है। उन्होंने बताया कि उनके पास तो केवल गुप्ता जी का ही नंबर था, जो अब बंद हो चुका है, लेकिन राजभाषा विभाग के पश्चिम क्षेत्र की उप निदेशक कार्यान्वयन डॉ. सुस्मिता भट्टाचार्य से उनके पारिवारिक संबंध होने के कारण उनके पास उनके बच्चों का नंबर हो सकता है। तीर निशाने पर लगा और यादव जी ने उनसे संपर्क साधा और इस प्रकार घंटे-दो घंटे के प्रयास के बाद मैं अपने बच्चों से संपर्क कर सका। फिर बच्चों ने कंप्यूटर से निकाल कर कुछ जरूरी नंबर मुझ तक पहुंचा दिए और लगा कि अब मैं वापस दुनिया में लौट आया हूँ। यह सोच कर आँखें भर आईं कि अगर कामिनी जीवित होती तो उस दिन उसने इतनी देर में तो बेचैनी में आसमान सिर पर उठा लिया होता। बच्चे भी परेशान थे। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि माजरा क्या है। उन्हें लगा कि शायद वहाँ कोई नेटवर्क की समस्या होगी। ।
मैं भगवान बुद्ध की बुद्धत्व स्थली के निकट ही एक होटल में रुका था। वहाँ निकट ही तमाम मंदिर आदि थे। कोरोना काल के चलते मुख्य मंदिर को छोड़कर सभी मंदिर बंद थे। जिनके दर्शन बाहर से किए जा रहे थे। मैं भी घंटों तक इधर-उधर मंदिरों के दर्शन करते हुए भटक रहा था। जिंदगी में शायद पहली बार ऐसा हुआ था कि मैं किसी दर्शनीय स्थल पर अकेला भटक रहा था। करीब तीन वर्ष पूर्व की ही तो बात है, जब हम काठमांडू और पोखर होते हुए नेपाल में भगवान बुद्ध की जन्मस्थली लुंबिनी गए थे। तब कामिनी और दोनों बच्चे साथ में थे। वहाँ भी ठीक वैसे ही मंदिर थे। वे तमाम यादें ताजा हो उठीं। मन उद्विग्न हो उठा।
पूजा के बाद अगले दिन मुझे राजगीर और अन्य स्थानों की यात्रा पर निकलना था। वहां के लिए भी वापसी टैक्सी के अलावा कोई अन्य उचित परिवहन व्यवस्था नहीं थी। मन की उद्विग्नता और विभिन्न समस्याओं और घटित घटनाओं के चलते आगे की यात्रा को लेकर कोई उत्साह नहीं रह गया था। पूजा के पश्चात मैंने अचानक निर्णय ले लिया कि अब मैं आगे की यात्रा के बजाए वापस लौटूँगा। मुझे पता लगा था कि दो दिन बाद गया से मुंबई की सीधी उड़ान प्रारंभ होने वाली है। लेकिन पता चला कि उसकी तारीख आगे बढ़ गई है। फिर दिल्ली होकर जाने का निर्णय लिया। जब वयोवृद्ध पिताजी को इसकी जानकारी मिली तो मेरे नए ने फोन पर कुछ कातर से स्वर में उऩ्होंने कहा, ‘बाहर की बाहर मुंबई मत जाना, घर पर हो कर ही जाना, मेरी तबीयत भी कुछ ठीक नहीं रहती।’ मैं भाव-विह्वल हो उठा, तत्क्षण मैंने सुबह की उड़ान से दिल्ली जाने का निर्णय ले लिया।
मगध विश्वविद्यालय, गया के वरिष्ठ प्रोफेसर प्रो.बिनय भारद्वाज जी, जो छत्तीसगढ़ में व्याख्याता के साक्षात्कार के लिए गए हुए थे, लौटने पर योजनानुसार मुझे उनसे दो दिन बाद मिलना था। मैंने उन्हें फोन पर संपर्क करके कहा, सुबह की उड़ान से दिल्ली जाना तय किया है। इसलिए मुलाकात न हो सकेगी। उन्होंने कहा अगर ऐसा है तो रात की गाड़ी से क्यों नहीं चले जाते, तीन-तीन राजधानी गाड़ी यहाँ से रात को गुजरती हैं, सुबह तक तो आप दिल्ली पहुंच जाएँगे। मुझे उनका सुझाव अच्छा लगा और मैंने बिना विलंब किए टिकट बुक करवा कर स्टेशन की ओर बढ़ चला। आशंका के विपरीत गया स्टेशन बहुत साफ-सुथरा और व्यवस्थित था। गाड़ी में बैठने पर गया के खट्टे-मीठे अनुभव दिलो-दिमाग में तैर रहे थे।
तभी सामने की सीट पर बैठे एक भद्र पुरुष ने सामान आदि रखने में मेरी मदद की। पता लगा कि वे सज्जन ज्वाला किशोर मिश्र जी थे, जो मुंगेर के रहने वाले हैं और दिल्ली में संस्कृत के अध्यापक हैं। गाड़ी चल पड़ी। गाड़ी चलने के साथ ही हमारा संवाद भी आगे बढ़ने लगा। मैंने उनसे अपने अनुभव साझा किए। उन्होंने कहा, ‘आप भाग्यशाली हैं कि इस वक्त यहां आए। अगर आप दस – पंद्रह वर्ष पूर्व यहां आए होते तो तब आपको समझ में आता कि आप कितनी बेहतर स्थिति में यहाँ आए हैं। आज जो आप सड़कें देख रहे हैं, तब ऐसी सड़कें न थीं, या फिर सड़कें ही न थीं। अपराध का साम्राज्य ऐसा था कि शाम होते ही बाजार बंद हो जाते थे। इसमें कोई संदेह नहीं कि अभी भी बिहार में विकास की बहुत आवश्यकता है लेकिन स्थिति पहले के मुकाबले बहुत बेहतर है। यहाँ एक से बढ़ कर एक महत्वपूर्ण दर्शनीय और ऐतिहासिक स्थल हैं, इसलिए पर्यटन की यहाँ असीम संभावनाएँ हैं। इस संवाद के माध्यम से बिहार और विशेषकर गया और निकटवर्ती क्षेत्रों की काफी महत्वपूर्ण जानकारी मिली।’ ज्वाला प्रसाद मिश्र जी से मिलना एक सुखद अनुभव था। मैंने मन ही मन सोचा कि जो हो, फिर यहाँ के ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा पर एक बार जरूर आऊँगा। सुबह गाड़ी दिल्ली पहुँची, में रहकर मै कई दिन पश्चात मुंबई पहुँचा। घर पहुँच कर जब गया की प्रसिद्ध स्वादिष्ट तिलकुट्टी खाई तो उसने वहाँ के कुछ कटु अनुभवों को भी स्वाद में बदल दिया।
लौटने पर भाई श्रीमाली जी से जब फोन पर बात हुई तो उन्होंने हँसते हुए कहा, ‘गुप्ता जी अब तो आपको एहसास हो गया होगा कि आपको चाहने वाले देश-दुनिया में कितने लोग हैं।’ इस प्रसंग की खास बात यह थी कि मुझ जैसा व्यक्ति जो बहुत मृदुभाषी नहीं है, जो बिना लाग-लपेट सीधी-सच्ची और सपाट बात कहता है, उसके भी इतने शुभचिंतक हैं, यह भी एक सुखद आश्चर्य था।
मेरी यह धारणा अब और दृढ़ हो चली थी कि रिश्तों की जमापूँजी ही सबसे बड़ी पूँजी है।
डॉ. एम.एल. गुप्ता ‘आदित्य’
वैश्विक हिंदी सम्मेलन, मुंबई