सदी के महानायक का मौन-मुखर व्यक्तित्व

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बोलने को तो सभी बोलते हैं। नदी, नाले, समंदर, झरने भी बोलते हैं। पशु-पक्षी भी बोलते हैं। महसूस करें तो विनाश के पूर्व और बाद का सन्नाटा भी बोलता है। किन्तु ये सब सिर्फ बोलते हैं या सिर्फ चुप रहते हैं। इंसान ही ऐसा है जो बोलकर भी चुप रह सकता है और चुप रहकर भी बोल सकता है। यह षोडस कलाओं वाले भगवान की सर्वोत्तम कृति जो है। यद्यपि सभी इसमें भी दक्ष नहीं होते।

देखिए ने महानायक फैमिली को। इनका विस्तार असीमित है। दुनिया में कौन नहीं जानता इन्हें! वैश्विक फैमिली है इनकी। ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है?’ की तर्ज पर अपने अंगने में किसी को आने नहीं देते। किसी और के अंगने में भी नहीं जाते। अपने पूर्वजों के अंगने (प्रतापगढ़) में भी नहीं गए कभी। दूसरे शब्दों में कहें तो असामाजिक-सामाजिक प्राणी हैं। देश-दुनिया के बड़े-बड़े मुद्दे पचा लेती है यह फैमिली। न डकार लेती है, न उबासी ही। कश्मीर का आना-जाना होता है तो होये। पौने पाँच सौ साल बाद मंदिर बनता है बने। सुशान्त मरता है तो मरे। जीडीपी गिरती है गिरे। कोविड का ग्राफ चढ़ता है तो चढ़े। किसान आत्महत्या करता है तो करे। जब इन्हें कंगना के अंगना में नहीं जाना तो घर गिरने से क्या मतलब! जरा ठहरिए तो…..मतलब है। खूब मतलब है। मतलब ही मतलब है। अगर कंगना मुम्बई पर अंगुली उठाएगी तो मतलब है। अगर कंगना के चलते बॉलीवुड का नंगापन उजागर होगा तो मतलब है। बॉलीवुड का आपराधिक कनैक्शन बेपर्दा होगा तो मतलब है। उड़ता पंजाब बनाने वालों का उड़ना दिखेगा तो मतलब है। मुर्दा कफन फाड़कर बोल उठेगा तो मतलब है। मगर क्यों? इसलिए कि उसी दलदल में इनका भी अंगना है जिसके चप्पे-चप्पे से कंगना परिचित है। कंगना के पीछे से जाँच एजेंसीज़ और उसके पीछे से जनता भी झाँककर वो सब देख लेगी जो वर्षों से छिपाया गया है।

इसलिए ही संसद में माननीया सांसद जया मैडम केवल बोलीं बल्कि खिसियानी बिल्ली की तरह झपट्टा भी मारीं। रविकिशन जैसा गवईं छोकरा उनकी दुखती रग पर हाथ जो रख बैठा था। सौ चूहे खाकर हज को जाने वाली हेमा मैम भी अपने झर झर झरते रेतीले अंगने को बचाने के लिए जया मैडम के साथ हो लीं। बात थाली में छेद की है। साधारण जनता तो पत्तल, टिन, स्टील या फाइबर की थाली में खाती है जो अपनी कमाई से अर्जित की गयी होती है। छेद होने पर ठठेरे को देकर नई खरीद लेती है। संकट इन बड़े लोगों को है। ये अक्सर उपहार की थाली या चुरायी हुई थाली या फेंकी हुई जूठी थाली या दूसरों की झपटी हुई थाली झपटकर एवं छुपाकर उपयोग करते हैं। लेकिन थाली कीमती ही रखते हैं। अब सोचिए जरा….। ऐसी थाली में अगर छेद हो जाये तो….। तो न किसी से बता सकते हैं, न फेंक सकते हैं, न बदल सकते हैं….। फिर सबसे बड़ी समस्या तो यह है कि खाएँगे किस थाली में!

हड़पी हुई थाली की सुरक्षा को खतरे में देखकर महानायक ने चुप्पी तोड़ी। 16 सितम्बर की ट्वीट में अपनी सात दशकीय विशेषताओं को जग जाहिर कर दिए जिसका जिक्र करना जरूरी है। “सागर को घमंड था कि, वह किसी को भी डुबो सकता है। तेल की एक बूँद आयी और तैरकर चली गई।।” शायर ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके शेर को इतना बड़ा महानायक थाली के छेद को बंद करने में लगा देगा ताकि फिर चैन से खा सके। इस परिवार की जीवनी देखें तो पाएँगे कि ये तेल की एक बूँद ही नहीं बल्कि तेल के बैरल हैं……डिपो हैं। समयानुसार आकर्षण और विकर्षण के स्वाभाविक गुण से मनचाहा आकार ग्रहण कर लेते हैं। जैसी थाली, वैसा आकार। आनंद फिल्म में तो आपने मक्खन (तेल का सहोदर) लगाते देखा ही होगा जिसमें राजेश खन्ना खन-खन बनकर रह गए। महमूद के घर से पाँव जमाने के बाद उन्हें दूध की मक्खी बना दिए। इंदिरा को तेल लगाकर फिल्में टैक्स फ्री और हिट करवाईं। रेखा, राखी और परवीन बॉबी को बिलखता छोड़कर किनारा कर लिये। राजीव को तेल लगाकर हेमवतीनन्दन बहुगुणा को पटकनी दी। इंदिरा गाँधी की हत्या पर ऐसे मुखर हुए कि सिक्खों के नरसंहार से जुड़ गए। बोफोर्स घोटाला में भी खूब नाम कमाये। आर्थिक रूप से डूबे तो अमर को मित्र बनाकर पीठ पर सवार होकर पार हो गए। खुद राजनीति से सन्यास ले लिए और न जाने कितनों को तेल लगाकर जया को संसद में पहुँचा दिए। यह वही जया हैं जो जयाप्रदा के अन्तःवस्त्रों पर खुलेयाम आजम खाँ की टिप्पणी पर खिलखिलाती रही हैं। 2007 में यह महानायक बाराबंकी में किसान बन जाता है। हर हाल में तेल का उपयोग करने आता है इन्हें। लेकिन क्या मजाल कि किसी और के काम आ सकें हो! किसी और को भी संकट के समय में उबारे हों!

महानायक बनने के लिए एक अच्छा ऐक्टर ही नहीं बल्कि एक अच्छा कैरेक्टर भी होना चाहिए। अवसरवाद की ऐसी पराकाष्ठा भारत में ही देखी जा सकती है। हमारा देश इतना भावुक है कि माँ सीता के दुःख को भूलकर रावण की मृत्यु पर विलाप करती मंदोदरी के साथ भी खड़ा हो जाता है। बहुरुपियों को भी आदर्श मान लेता है। माटी को भी माधव समझने लगता है। नर को भी नारायण मान लेता है। ऐसे में मुट्ठी भर लोग भावनाओं से खिलवाड़ करके अपने नफे- नुकसान के अनुसार थाली-थाली खेलने लगते हैं। मौन-मुखर का दाव-पेंच लगाने लगते हैं। किन्तु मत भूलिए कि भारत बदल रहा है। अब कीचड़ में उपजी कंगनाओं को चुप नहीं कराया जा सकता। अब किसी हत्या को आत्महत्या कहकर मौन नहीं रहा जा सकता। आज का भारत चेहरे से नकाब नोच लेगा।

डॉ अवधेश कुमार अवध
मेघालय

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