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चलता रहा,
बड़ा हो गया
अपने पैरों पर,
खड़ा हो गया।
शहर दर शहर,
घूमता रहा
अनुभवों को लिए,
चढ़ता रहा।
दुनिया भर में,
बढ़ता गया
शिखर कई,
चढ़ता गया।
सफलताएं,
चरण चूमती रहीं
नाम से,
आकाश पट गया।
कहीं भरोसा,
नहीं होता
कुछ कमी-सी,
लगती है।
आँख के कोरों पर
नमी-सी लगती है।
माँ तेरा हाथ नहीं,
सर पर कोई साथ नहीं।
जी धड़कता है,
जब बिजली दूर
कड़कती है,
बादल की ओट।
माँ मैं तुझसे,
रूठा हुआ हूँ
तू आती क्यों नहीं
प्रश्न सुलझाती नहीं।
तुम असमय चली गई,
काश मेरा तो सोचती
कितनी उलझने हैं,
सब निपटाती सही।
एक राह दिखलाती,
बन दीये की बाती
तेरे जाने भर से,
कुछ नहीं बदलता।
न एहसास ख़त्म,
न पहचान मिटी
तू ही मेरा आकाश,
तू ही संस्कारों की मिट्टी।
कोने-कोने में तू,
हँसने-रोने में तू
उठने-सोने में तू,
सांसों के होने में तू।
अमराई में आम पके,
मन कहीं पे कच्चा है
जितना चाहे बड़े बनो,
लाल माँ का बच्चा है।
#अरुण कुमार जैन
परिचय: सरकारी अधिकारी भी अच्छे रचनाकार होते हैं,यह बात
अरुण कुमार जैन के लिए सही है।इंदौर में केन्द्रीय उत्पाद शुल्क विभाग में लम्बे समय से कार्यरत श्री जैन कई कवि सम्मेलन में काव्य पाठ कर चुके हैं। उच्च शिक्षा प्राप्त सहायक आयुक्त श्री जैन का निवास इंदौर में ही है।
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Fri May 12 , 2017
जीवन से नदारद—–प्यार हो गया। आदमी का तामसी व्यवहार हो गया।। जिसे भी देखो —–बस भाग रहा है। धन-दौलत ही जीवन — सार हो गया।। गायब हो गई है —-बाज़ारों की रौनक। ऑनलाईन सारा —-व्यापार हो गया।। माँ-बाप को अनाथालय में छोड़ कर। वो कहता है —घर गुलज़ार हो गया।। […]