देवर्षि नारद अनेक कलाओं और विद्याओं में में निपुण हैं। ये वेदांतप्रिय, योगनिष्ठ, संगीत शास्त्री, औषधि ज्ञाता, शास्त्रों के आचार्य और भक्ति रस के प्रमुख माने जाते हैं। देवर्षि नारद को श्रुति-स्मृति, इतिहास, पुराण, व्याकरण, वेदांग, संगीत, खगोल-भूगोल, ज्योतिष और योग जैसे कई शास्त्रों का प्रकांड विद्वान माना जाता हैं। देवताओं के ऋषि होने के कारण नारद मुनि को देवर्षि कहा जाता है। प्रसिद्ध मैत्रायणी संहिता में नारद को आचार्य के रूप में सम्मानित किया गया है। देवर्षि नारद को महर्षि व्यास, महर्षि वाल्मीकि और महाज्ञानी शुकदेव का गुरु माना जाता है। कहते हैं कि दक्ष प्रजापति के पुत्रों को नारदजी ने संसार से निवृत्ति की शिक्षा दी। कुछ स्थानों पर नारद का वर्णन बृहस्पति के शिष्य के रूप में भी मिलता हैं।
त्रिकालदर्शी को दुनिया का प्रथम पत्रकार या पहले संवाददाता होने के गौरव प्राप्त है, क्योंकि देवर्षि नारद ने इस लोक से उस लोक में परिक्रमा करते हुए संवादों के आदान-प्रदान द्वारा पत्रकारिता का प्रारंभ किया था। इस प्रकार देवर्षि नारद पत्रकारिता के प्रथम पुरूष, पुरोधा, पितृ पुरूष हैं। वे इधर से उधर भटकते या भ्रमण करते ही रहते हैं। तो संवाद का सेतू ही बनाते हैं। दरअसल देवर्षि नारद भी इधर और उधर के दो बिंदुओं के बीच संवाद सेतू स्थापित का कार्य करते हैं। इस प्रकार नारद संवाद का सेतू जोड़ने का कार्य करते हैं तोड़ने का नहीं।
स्तुत्य, सेवा ही पत्रकारिता का लक्ष्य हैं, पत्रकारिता आदर्शो से प्रेरित हैं। ये पत्रकारिता के गुरू नारद मुनी का कालजयी महामंत्र हैं। इसे विद्वानों ने अभिव्यक्त करते हुए कहा कि पत्रकारिता काल-धर्म की तीसरी आंख हैं। पत्रकारिता वैचारिक चेतना का उद्घेलन हैं। पत्रकारिता समाज की वाणी और मस्तिष्क हैं। पत्रकारिता लोकनायकत्व की सहज विधा हैं। पत्रकारिता ’पांचवां वेद’ है जिसके द्वारा हम ज्ञान-विज्ञान सम्बंधी बातों को जानकर अपने बन्द मस्तिष्क को खोलते हैं। पत्रकारिता असहायों को संबल, पीडितों को राहत, अज्ञानियों को ज्ञानज्योति एवं मदोन्मत शासक को सद्बुद्घि देने वाली विधा और सत्य के रस का स्रोत हैं।
असिलयत कहे या हकीकत समाचार पत्र दैनिक जीवन के अनिवार्य अंग बन चुके हैं। यह प्रबुद्घ पाठकों के लिए एक ऐसा दर्पण है जिसकी सहायता से वे विश्व की गतिविधियों, स्वराष्ट्र के उत्थान-पतन तथा क्षेत्र विशेष की ज्वलंत समस्याओं से सुपरिचित होते हैं। समाज का वास्तविक थर्मामीटर तो समाचार पत्र ही हैं जिसमें सामाजिक वातावरण का तापमान परिलक्षित होता हैं। पत्रों को दूरबीन कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी, क्योंकि वे भविष्य में होने वाली बहुत दूर-दूर की घटनाओं का आभास दे देते हैं।
अभिष्ट, वर्तमान समय की पत्रकारिता में पत्रकारों पर स्वामित्व का सबसे बडा दबाव हैं। पत्रकारिता को चर्तुथ स्तम्भ के रूप में जाना जाता हैं किन्तु माना नहीं जाता? जिसमें संपादक की महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं, पत्रकारिता को एक पवित्र उद्देश्य वाला व्यवसाय माना गया हैं। परन्तु सम्यक् संपादक की भूमिका घटी हैं, मालिक ही अब सम्पादक पद पर सुशोभित हो रहे हैं। अगर कोई संपादक नियुक्ति भी किया जाता है तो उसका प्रयोग सत्ता के दलाल के रूप में किया जा रहा हैं। आज अखबार के संचालक जो चाहते हैं वही जनता तक पहुंच पा रहा हैं। विज्ञापन या अर्थोंपार्जन सर्वाधिक महत्वपूर्ण हो गया हैं।
लिहाजा, जन-हित के प्रहरी समाचार पत्र शासक को झकझोरते हैं, उन्हें नाराज करते हैं, नींद हराम करते है फलत: पत्रकारों का एक वर्ग संत्रस्त हैं। कहीं-कहीं पत्रकारों की हैसियत बंधुआ मजदूरों की तरह है, वे किसी की कठपुतली हैं। समाचार पत्र मालिकों के नुकसान की चिंता तथा अन्ध विश्वासी में जनता की अनुरक्ति के कारण पत्रकारों की स्वतंत्रता बाधित होती हैं। चारों पहर जागने वाला पत्रकार आज स्वयं किंकत्र्तव्यविमूढ है कि अपनी ही बिरादरी के बहुरूपिये गिरोह से कैसे निपटा जाये?
स्मृणित रहे, पत्रकारिता एक पावन अनुष्ठान है जिसमें समाज के प्रति शुभेच्छु सहृदय की भूमिका ही वरेण्य होती हैं। कर्म के नैतिक आधारों की अनुपस्थिति में पत्रकार सम्मानित नहीं होता। आत्म निरीक्षण, आत्म नियंत्रण और आत्म गौरव के विकास से ही पत्रकार सम्मानित होगा। और उसकी पत्रकारिता गौरव दीप्त होगी। मूल्यों पर निर्भर प्रहार से मुक्त हिन्दी पत्रकारों को अपनी उज्जवल परम्परा से जुडना होगा और लोकनायक की भूमिका निभानी होगी। वास्तव में यह एक पवित्र पेशा हैं। पत्रकार की लेखनी ’सत्यम्, शिवम्, सुन्दरम् की शंखध्वनि से बंधी होती हैं। इसका लक्ष्य है राष्ट्र के कोने-कोने में जनजागरण, नवस्फूर्ति और नवनिर्माण का मंत्र फूंकना। येही ‘जागते रहो‘ का मंत्रदाता जगत ऋषि नारद मुनी की स्तुति अजर-अमर हैं।
हेमेन्द्र क्षीरसागर, पत्रकार, लेखक व विचारक