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भारत दुनिया का चलायमान महान लोकतंत्र है। संसदीय प्रणाली इसकी मूल आत्मा और सांसद शरीर हैं, जिनके निर्वाचन की बागडोर विश्व के सबसे बड़े चुनावी निकाय भारतीय निर्वाचन आयोग के कंधे पर होती है,जिसे वह निष्पक्षता के साथ पर्यन्त निभाते आया है। चाहे वह चुनावी घोषण-पत्र में मुफ्त चीजों के वादों पर सख्ती हो,या आचार संहिता का उल्लंघन,मतदाताओं को हड़काने,उकसाने और नजराने की पेशगी करने वाले दलों व उम्मीदवारों पर कड़ी कार्रवाई सहित हर मामले में आयोग नीर-क्षीर बना रहा,किंतु राजनीतिक दलों को यह कतई रास न आया कि,चुनाव आयोग उन पर नकेल कसे। लिहाजा,ऐसे दलों ने गाहे-बगाहे राजनीतिक पैंतरेबाजी के लिए नए-नए हथकंडे आजमाना शुरु कर दिया है। ईवीएम में पक्षपात का आरोप लगाते हुए आयोग की निर्वाचन प्रक्रिया पर ही प्रश्न चिन्ह खड़े कर दिए। बदतर जनता के फैसले को गले लगाने के बजाय हार का टीकरा जहान में सराही गई ईवीएम पर फोड़ते हुए मतदान मतपत्र से करवाने का बेसुरा राग अलापा। जैसे देश की चुनावी तंत्रिका ने ही इनकी नौका डुबोई हो। बावजूद आत्मचिंतन के स्वच्छ,लोकतंत्र के रास्ते में खलल न डालते तो बेहतर होता,न कि चुनावी फिजा को बेरंग करते हुए लूट-पाट,मारपीट और वोट के बदले नोट का कुत्सित खेल खेलते।
दरअसल,कमोबेश पराजय की बेला में संसद से सड़क तक विलाप का मिलाप करना देश को बेवकूफ बनाने के सिवाय और कुछ नहीं है। वाकई में गर छल हुआ होता तो,मतदाता शांत चित रहकर अपने जनादेश का अनादर न होने देते। इनकी खामोशी में ही सहमति झलकती है कि,इन्होंने किसे दुलारा है और किसे नकारा है। फिर क्यों तथाकथित मौकापरस्त हायतौबा मचा रहे हैं? क्या उन्हें मालूम है कि,किसने किस को मताधिकार दिया है? जब कुछ पता ही नहीं,तो माहौल खराब करने से क्या फायदा। इसी नफे-नुकसान की होड़ में जनतंत्र राजनीति का दल-दल बनता जा रहा है। हालात बद-बदतर न हो जाए,इसी इरादे से मत-मन को एकमतेन कहना पड़ेगा-स्वच्छ लोकतंत्र के वास्ते,खाली कर दो रास्ते! इसके अलावा कोई चारा नहीं है,क्योंकि लोकतंत्र से राजनीतिक दल हैं,राजनीतिक दलों से लोकतंत्र नहीं।
बहरहाल,वजूद को जिंदा रखने की कवायद में हालिया आर्थिक सुधार,चुनावी मुद्दों के विषय पर आयोजित एक सेमिनार में देश के मुख्य न्यायाधीश जे.एस.केहर ने बेबाकी से कहा कि-चुनावी वादे हमेशा अधूरे रह जाते हैं,जो कभी पूरे नहीं होते। लिहाजा,राजनीतिक दलों को इसके लिए जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। राजनीतिक पार्टियों के घोषणा-पत्र में आर्थिक सुधार और सामाजिक न्याय के संवैधानिक लक्ष्य के बीच कोई तालमेल नहीं दिखता,बल्कि वह कागज का टुकड़ा बनकर रह जाता है। राजनीतिक दल चुनावी वादे पूरा न होने पर निर्लज्ज बहाने देते हैं और उसे सही ठहराते हैं। पार्टियां जो वादे करें,उन्हें निभाएं भी। सुप्रीम कोर्ट के दूसरे न्यायाधीश ने स्पष्ट तौर पर कहा कि-चुनाव में खरीदी-बिक्री की प्रवृति के लिए कोई स्थान नहीं है। चुनाव लड़ना कोई निवेश नहीं है। चुनाव प्रक्रिया अपराधमुक्त करनी होगी। लोग गुणों के आधार पर उम्मीदवारों को चुनें,न कि अवगुणों के आधार पर। अभिष्ट,जिस दिन मतदाता बिना लालच के मत डालने जाएगा,वह दिन लोकतंत्र के लिए गौरवशाली होगा।
अतः लोकतंत्र के सजग प्रहरी चुनाव आयोग की संवैधानिक व्यवस्थाओं को राजनीतिक स्वार्थ सिद्धि के लिए बेवजह तार-तार न करें,तो ही अच्छा होगा। आयोग की साफगोई पर किसी को शक नहीं हैं। हाँ, राजनीतिज्ञों की कार्यप्रणाली और लोक-लुभावन हसीन सपने जरूर संशय में डालते हैं कि,वह पूरे होगें या नहीं। यह मिथक टूटेगा,तभी जन-मन लोकतंत्र के वास्ते,खाली कर दो रास्ते! नहीं आपके वास्ते,खाली हैं लोकतंत्र के रास्ते..का जयघोष करेगाl
#हेमेन्द्र क्षीरसागर
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