मन का दर्पण देख नर,बाहर भरम अथाह।
भेद मिटे सारे सहज, अटल रहे उत्साह।।
दर्पण को देखा हुआ, मायावरण विमोह।
मन की खिड़की जब खुली,मिटा भरम सब मोह।।
दर्पण दर्शन सूरत अरु,बाल क्रिडन त्रय ठाम।
भूले से नहि आत है,हरि वल्लभ कौ नाम।।
सत्य कहाँ दर्पण कहे,मनचीता कह पाय।
मन ही चेतन जब हुआ,दर्पण बिरथ बनाय।।
दर्पण माया रूप जग,देता भरम अथाह।
टूटा दर्पण मिट गया,कलुष कलंकित दाह।।
निज की छवि दर्पण रही,सत्य कहाँ स्वीकार।
बिनु दर्पण मन थाह ले,उपजहि हाहाकार।
दर्पण यह कहता हमें,निज तज पर की सोच।
निज-हित वही विचारते,जिहि नर तन मति पोच।।
दर्पण टूटा मिटि गया,सकल भरम संसार।
कृपाकोर गुरु जब गही,तमस भया उजियार।।
दर्पण को देखा किए,मन में मोद अपार।
ज्ञान भया गुरु कारणै, जीवन लगा असार।।
#भगत ‘सहिष्णु’
परिचय : भगत टेलर ‘सहिष्णु’ प्रतापनगर (राजस्थान)में रहते हैं और प्रतियोगी शिक्षण कथा प्रवचन का व्यवसाय करते हैं। आप हर प्रकार के लेखन में सक्रिय हैं।
सुन्दर दोहे ।बधाई आपको।