सात जन्मों का बंधन

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सात जन्मों का बंधन इतनी जल्दी भूल गई तू हाथ छुड़ाकर मेरा कितनी दूर निकल गई तू..!
हंसता, मुस्कुराता, खिलखिलाता मेरा आशियां उज़ड गया, तू गई पीछे तड़पाने तेरी याद रह गई,
कैसे खुद को संभालूँ अकेले जीना तूने कभी सीखाया ही नहीं
तुम क्या गई मेरे तन से रूह जुदा हो गई …!
सूना है घर,सिसकती है दीवारें,रसोई में बर्तन रोते है..!
बेड की सिलवटें
गमलों के पौधे
घूरती छत
झूमती हवा तुमको ही पुकारे..!
कोने पर पड़ा झाड़ू
तकिये का लिहाफ़
अलमारी में कपड़े
पंछियों की धुन तुम बिन बेसहारे..!
थी तुम तो सब में जान थी
आज बेजान है सारे नज़ारे
जाना आज मैंने गृहस्थी की नींव थी तू तेरे काँधे पर थमे थे घर के सारे अटारे
ज़िंदगी के हर सूर की तान थी तू
लय थी तू, तू रूठी तो हर सरगम टूटी..!
जब थी तू भाति थी हर शै
अब हर रंग फ़िके लगते है
छूटी गिरह तेरे हाथों की
हर रिश्ते बेसहारे लगते है
क्यूँ छोड़ गई रिश्ता तोड़ गई तू
बिन तेरे कैसे जीऊँ क्यूँ न बता गई तू..!
ले गई मुझमें से मुझको निकाल कर
क्यूँ सिर्फ़ जिस्म मेरा इधर छोड़ गई तू साँस लेने भर को ज़िंदा छोड़ गई तू
कहाँ ढूँढूं बता ना कौन से जहाँ में चली गई तू।।
भावना ठाकुर 

matruadmin

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