वास्तविक पर्यावरण दिवस या फिर औपचारिकतायें

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shashank mishra
अभी 05 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया गया।यह साल वायु प्रदूषण के विषय पर है इससे पहले 2018 में हमने इसी दिवस को प्लास्टिक प्रदूषण को हराना है विषय पर मनाया था वायु सबसे बड़ा माध्यम है प्रदूषण को इधर उधर पहुंचाने का।इसीलिए कई बार इसे हम लोग खर दूषण भी कह देते हैं।विश्व में पर्यावरण के लिए उसकी सुरक्षा और संरक्षण के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1972 में पहल की।05 जून 1974 को पहली बार विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया गया।उसके बाद लगातार विश्व स्तर पर राजनीतिक और सामाजिक जागरूकता लाने के लिए मनाया जाता रहा है।भारत की ओर से श्रीमती इन्दिरा गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में इस विषय पर संसार के 119 देशों का ध्यान आकर्षित किया था।आज विश्व की इस संस्था में देशों की संख्या कहीं अधिक है और पर्यावरण में प्रदूषण का आकार प्रकार व मात्रा काफी बढ़ चुकी है।
साधारण भाषा में अपने आसपास का वातावरण ही पर्यावरण है जोकि भौतिक और सांस्कृतिक स्वरूपों में हम सब पर अपना प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष प्रभाव डालता है।हमारे देश में जबसे मानव चक्षु खुले ज्ञान की प्रथम पुस्तक रची गयी तब से ही पर्यावरण को महत्व दिया गया।जनमानस अधिक गम्भीरता से ले इसलिए धर्म और सामाजिक परम्पराओं से जोड़ा गया।अनेक मान्यतायें संस्कार इसके माध्यम से होने लगे।लोगो में इसके प्रति सम्मान और भय दोनों पैदा हुए।परिणामतः जब तक यहां का सामाजिक तानाबाना धर्मप्रधान सामाजिक मान्यताओं पर केन्द्रित रहा पर्यावरण कुछ खास समस्या न बन सका।मां के गर्भ में जिस तरह बच्चा सुरक्षित वैसा ही पर्यावरण के पांचों तत्वों आकाश वायु जल धरती और आग को सन्तुलित रखने का हर संभव प्रयास करते रहे।इनकी पूजा के बिना हमारा कोई धार्मिक अनुष्ठान सम्पूर्ण न हो रहा था।फूल पत्ती तोड़नी हो या पेड़ काटना सबके नियम बने थे।
जैसे जैसे हम विदेशी समुदाय शासन के सम्पर्क में आये हमारा रहन सहन खान पान और सोंच ऐसी बदली कि हमारे सारे के सारे समीकरण गड़बड़ा गये।रही सही कसर हमारी बाजारू मूल्यविहीन शिक्षा ने पूरी कर दी।जिसके कारण आजकल हम सब अन्य मामलों की तरह पर्यावरण जैसे गम्भीर विषय पर भी औपचारिक अधिक हो गये।समय के साथ जैसे जैसे हमारे राष्ट्रीय पर्वों स्वतंत्रता दिवस गणतंत्र दिवस के प्रति आम जनमानस की धारणा बदली कुछ लोगों संस्थाओं की जिम्मेदारी भर रह गयी ठीक वैसा ही हम सब इस दिवस के प्रति दिखावा अधिक करने लगे हैं।अपनी संस्कृति परम्पराओं और मूल्यों से सीख आगे न बढ़ पाये।प्राकृतिक पर्यावरण उसके अंगों को भुलाकर कंकरीट लोहे और रेडियेशन की दुनियां में खो गये।पशु पक्षी वनस्पति जंगल पहाड़ नदी झरने हवा पानी सबके सब अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने लगे।हम सब अनेक रोगों संक्रमणों से ग्रसित हो गये।भारत को पहले इण्डिया बनाया अब यूरोप अमेरिका बनाने पर तुले हैं।सोच रहे हैं कि हमसे खर दूषणी कचरे में चीन अमेरिका आगे कैसे हैं।
ऐसा भी नहीं है कि हम विश्व पर्यावरण दिवस नहीं मनाते हैं।गोष्ठियां रैलियां प्रतियोगितायें नहीं करते हैं।पौधरोपण के बड़े बड़े आयोजन सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर नहीं होते हैं।एक एक ग्रामपंचायत में अपनी पंचवर्षीय योजनाओं में लाखों के पौधे नहीं लग जाते हैं।बड़े बड़े सम्मान पुरस्कार भी बंटते हैं।अगले दिन हर तरह के समाचार पत्रों में इनकी खबरे छपतीं हैं।मीडिया के हर स्तर पर चर्चा भी होती है।अनेक साहित्कार कवि मित्र इसपर अपनी कलम चलाने में कोई कसर न छोड़तें।ऊपर से मंचों पर गला फाड़ कर जागरूकता भी फैलाते हैं।
पर आश्चर्य इसका परिणाम क्यों न दिखता।सौ पचास से कोई पौधे कम न लगाने वाला संस्थान दस दस साल तक हरा भरा क्यों न हो पाता।अन्तरिक्ष से सागर नदियों तक हमें परिवर्तन दशमलव में ही क्यों दिखता है।अपने आस पास धूल धुंए गन्दगी कई तरह के रेडियेशन के दुष्परिणाम पशु पक्षियों फल फूलों वनस्पतियों व बीमार हो रहे मानव की हर आयुवर्ग में क्यों दिख रहे हैं ?प्रश्न फिर वहीं का वहीं कि हम औपचारिक अधिक हो गये काम कम दिखावा अधिक करने लगे।बात चाहे राजनीति में इस मामले की हो अथवा समाज में जागरूकता की।जिसके कारण ही दिखावटी ढोल पीटने जैसी बात अधिक हो रही है और हम सब अपेक्षानुरूप परिणाम नहीं पा रहे हैं।चुरू जैसेलमेर जैसे हाल दिल्ली के होने लगे हैं।आम जरूरत की पानी की बात छोंड़ो पीने के लिए शुद्ध पानी मिलना कठिन हो रहा हैं।हर आदमी पानी खरीद कर भी नहीं पी सकता इसलिए वर्तमान सरकार ने पेयजल के मुद्दे को गम्भीरता से लिया है।
अब भी समय है कि हम सब पृथ्वी पर हर तरह के जीवन के लिए सबसे महत्वपूर्ण पर्यावरण को मात्र दिवस मनाना औपचारिक रूप में न लेकर हर स्तर पर गम्भीरता से लेकर आगे बढ़ें।सबकी जिम्मेदारी तय हो।देश के संसाधनों पर अधिकार की तरह कर्तव्य का बोध हो ।अन्यथा बोध करवाया जाये। यही हम सबके लिए और संसार के लिए कल्याणकारी होगा

#शशांक मिश्र

परिचय:शशांक मिश्र का साहित्यिक नाम `भारती` और जन्मतिथि १४ मई १९७३ है। इनका जन्मस्थान मुरछा-शहर शाहजहांपुर(उत्तरप्रदेश) है। वर्तमान में बड़ागांव के हिन्दी सदन (शाहजहांपुर)में रहते हैं। भारती की शिक्ष-एम.ए. (हिन्दी,संस्कृत व भूगोल) सहित विद्यावाचस्पति-द्वय,विद्यासागर,बी.एड.एवं सी.आई.जी. भी है। आप कार्यक्षेत्र के तौर पर संस्कृत राजकीय महाविद्यालय (उत्तराखण्ड) में प्रवक्ता हैं। सामाजिक क्षेत्र-में पर्यावरण,पल्स पोलियो उन्मूलन के लिए कार्य करने के अलावा हिन्दी में सर्वाधिक अंक लाने वाले छात्र-छात्राओं को नकद सहित अन्य सम्मान भी दिया है। १९९१ से लगभग सभी विधाओं में लिखना जारी है। श्री मिश्र की कई पुस्तकें प्रकाशित हैं। इसमें उल्लेखनीय नाम-हम बच्चे(बाल गीत संग्रह २००१),पर्यावरण की कविताएं(२००४),बिना बिचारे का फल (२००६),मुखिया का चुनाव(बालकथा संग्रह-२०१०) और माध्यमिक शिक्षा और मैं(निबन्ध २०१५) आदि हैं। आपके खाते में संपादित कृतियाँ भी हैं,जिसमें बाल साहित्यांक,काव्य संकलन,कविता संचयन-२००७ और अभा कविता संचयन २०१० आदि हैं। सम्मान के रूप में आपको करीब ३० संस्थाओं ने सम्मानित किया है तो नई दिल्ली में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर वरिष्ठ वर्ग निबन्ध प्रतियोगिता में तृतीय पुरस्कार-१९९६ भी मिला है। ऐसे ही हरियाणा द्वारा आयोजित तीसरी अ.भा.हाइकु प्रतियोगिता २००३ में प्रथम स्थान,लघुकथा प्रतियोगिता २००८ में सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुति सम्मान, अ.भा.लघुकथा प्रति.में सराहनीय पुरस्कार के साथ ही विद्यालयी शिक्षा विभाग(उत्तराखण्ड)द्वारा दीनदयाल शैक्षिक उत्कृष्टता पुरस्कार-२०१० और अ.भा.लघुकथा प्रतियोगिता २०११ में सांत्वना पुरस्कार भी दिया गया है। आप ब्लॉग पर भी सक्रिय हैं। आप अपनी उपलब्धि पुस्तकालयों व जरूरतमन्दों को उपयोगी पुस्तकें निःशुल्क उपलब्ध करानाही मानते हैं। आपके लेखन का उद्देश्य-समाज तथा देशहित में कुछ करना है।

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