डॉ0 मृदुला शुक्ला “मृदु” की “भक्तयांजलि” आप भावुक भक्त जिज्ञासुओं के कर-कमलों में आकर भक्ति-पय-पान कराने में पूर्णत: समर्थ हुई है। पुण्य पावनी भारतभूमि बहुदेव-पूजित धरा है इस भाव को मन में समाहित कर डॉ0 मृदुला शुक्ला “मृदु” ने अपनी भावधारा एवं भक्तिधारा को “भक्तयांजलि” के रूप में प्रवाहित की है। पद्यात्मक स्तुति शैली में यह मुक्तक काव्य अत्यन्त सराहनीय है।
सर्वप्रथम आदिदेव गणेश जी की वन्दना करते हुए कवयित्री अत्यन्त भावुक होकर कहती है–
“गौरीसुत गणपति मंगल करति हैं”
गणपति जी से आशीर्वाद पाकर त्रिदेवियों– महाकाली, महासरस्वती, महालक्ष्मी को अपनी भावपुष्पिका अर्पित करने में वह उत्कण्ठित दिखाई देती है। महासरस्वती की अष्टक वन्दना इस भाव का प्रतीक है कि माँ के आशीर्वाद से ही कवयित्री अपनी लेखनी को बलवती बनाकर शब्द-भाव-भावुकों को समर्पित करती रहेगी। इसीलिए माँ शारदा से याचना करती है–
“लेखनी की धार में मृदु एक नवल इतिहास दे।
शब्दों में नवचेतना नव रागिनी, सुर, ताल दे।।”
माँ शारदा की आराधना करके जीवन को गति प्रदान करने वाली माँ लक्ष्मी के चरणों में शब्द-पुष्प अर्पण करने में भी कवयित्री पीछे नहीं हटती।
महालक्ष्मी, महासरस्वती की साधना भक्तों को कराकर डॉ0 मृदुला शुक्ला “मृदु” इस बात से बिलकुल भी अनभिज्ञ नहीं है कि महालक्ष्मी, महासरस्वती का रूप धारण करने वाली शक्ति महाकाली, महाभवानी, महादुर्गा आदि-आदि नामों से जानी जाने वाली सदा ही इस धरती को शोकरहित, विघ्नरहित एवं पाप-रहित बनाती रहती है। अपने लगभग पन्द्रह-सोलह गीतों में कवयित्री ने माँ के पूजन, अर्चन, वन्दन एवं जयकारे में कोई कृपणता नहीं की।
माँ का एक और रूप कल्याणी है, जो इस धरती को रससिक्त करने के लिए “सरिता” का रूप है। माँ अपने लोक-मंगलकारी रूप में गंगा, यमुना, सरस्वती, गोमती, गोदावरी आदि इन अनन्त रूपों में धरा को हरा-भरा करती है एवं सर्व मंगलकारिणी साक्षात भगवतगीता के समान है–
“भक्तन की प्रिय तिहुँ लोकन परमप्रिय,
जाह्नवी ये भगवद्गीता के समान है”
यह गंगा नदी स्वयं में विष समाहित करके भक्तों को अमृत-पान कराने वाली माँ है–
“लहरों के सर्प फुफकारते हैं रैन-दिन,
पापियों के पाप धोने वाली गंगा माई है”
राधा-कृष्ण की लीलाओं की साक्षी यमुना माई का वर्णन अपनी लेखनी द्वारा डॉ0 मृदुला शुक्ला “मृदु” कुछ इस प्रकार करती हैं–
“कृष्ण-केलि आश्रयभूता संकटों की नाशिनी,
कालिन्दी जीवों का उद्धार करने वाली है”
इसी प्रकार माँ ब्रह्मपुत्र, सरयू, गोदावरी का जयकारा लगाकर डॉ0 मृदुला शुक्ला “मृदु” “भक्तयांजली” को विजयश्री प्राप्त होने की आशा में कह उठती है–
“सम्माननीया मृदु सुयश प्रदाता देवि!
अति कमनीय गोदावरी तेरी जय हो”
त्रिदेव-पूजित यह सृष्टि सदा ही परमात्मा का पालन स्वरूप कण-कण में रमने वाले जगत-नियन्ता, पालनहार को ही पूजती है। सृष्टि को जीवन देने वाले, धनुष धारण करने वाले, करुणा के अवतार राम-कृष्ण को भावमालिका अर्पित करने में डॉ0 मृदुला शुक्ला “मृदु” ने अपनी लेखनी को अत्यन्त ज्वलन्त एवं जीवन्त बनाया है।
प्रभु राम, जिन्होंने जटायु का उद्धार किया, सुग्रीव से मैत्री की, जो जटा-किरीट धारण करने वाले हैं, वे राम कवयित्री के प्रणम्य हैं।
इसी प्रकार कवयित्री समस्त देवी-देवताओं को प्रणाम करती हुई एवं प्रिय, श्रेष्ठ, श्रेया, अतिशय प्रशंसनीय एवं वन्दनीय भारत-भूमि को इसलिए नमन करती है , क्योंकि यहाँ अनेक ऋषियों, मुनियों की ऋचाएं स्वत: ही फलीभूत होती हैं, वेद, शास्त्र, उपनिषद, गीता का ज्ञान सदैव बरसता रहता है।
इस प्रकार सम्पूर्ण काव्य में कवयित्री डॉ0 मृदुला शुक्ला “मृदु” का आस्थावान हृदय प्रतिबिम्बित एवं परिलक्षित हुआ है। इस काव्य-संग्रह से बहुरूपों एवं बहु आयामों में प्रभु का वन्दन करने का सौभाग्य भक्तजनों को सदा ही प्राप्त हो रहा है। भक्तिभाव-भाविता कवयित्री की इस सर्जना से भक्तजन सदैव आप्तकाम होते रहेंगे।
इसी सदाशयता के साथ–
डॉ0 नमिता श्रीवास्तव
(शिक्षिका)
महराज-नगर
लखीमपुर-खीरी (उ0प्र0)