साज़िशें बनती रही मुझको मिटाने की,
मैं इनायतें समझती रही ज़माने की,
रखती हूं हौंसला आसमान को छूने का,
परवाह नहीं करती ज़मीन पर गिर जाने की,
तज़ुर्बे से गिन लेती हूँ उड़ती चिड़िया के पर,
आदत नहीं मुझे हवा में तीर चलाने की,
उठती रही मैं हरबार ज़िंदादिली के साथ,
कोशिशें नाकाम रहीं मुझको गिराने की,
वो लकीर समझ मिटाना चाहते हैं मुझको,
पर मेरी भी ज़िद है पर्बत बन जाने की,
वजूद खटकता है मेरा आँखों में सबकी,
क्योंकि मैं परवाह नहीं करती ज़माने की,
रूठते ही रहते है लोग मेरे तौर तरीकों से,
कोशिश भी क्यूँ करूँ मैं उनको मनाने की,
जो लिखा नहीं है हाथों की लकीरों में ,
जुस्तजू है मेरी बस उसी को पाने की।
#रश्मि शर्मा
उदयपुर