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ऐ मिट्टी तू मुझे रौंदना
अब सहम-सहम कर चलता हूँ,
सोचता हूँ मैं तुम्हें रौंदता,
पैरों के तले मैं रखता हूँ।
डर लगता मुझको अब तुझसे है,
तुझमें ही तो मिल जाना है,
अंदर से अभिमान जागता,
अभी तुझे रौंदने का ही तो पैमाना है।
अब सच में भी अंतर हूँ जानता,
पर डरता हूँ सच कह पाने में,
कुछ तुम जानो कुछ हम जानें,
पर लज्जा आती है खुद को समझाने में।
ना जाने कब तुम मुझे बुलाओ,
भयभीत इसी से रहता हूँ,
जाने कब मिल जाना तुझमें,
अब ठहर-ठहर के चलता हूँ॥
#प्रभात कुमार दुबे (प्रबुद्घ कश्यप)
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