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मैंने बोया,
एक बीज शब्द का..
मरुस्थल में।
वहां लहलहाई
शब्दों की खेती,
फिर बहने लगी
एक नदी..
शब्दों की
कविता बनकर
उस मरुस्थल में।
एक दिन कुछ और नदियाँ,
शब्दों की आकर मिली..
उसी मरुस्थल में,
और
बन गया एक सागर
शब्दों का
मरुस्थल में।
अब मरुस्थल,
मरुस्थल नहीं रहा
अपितु,
बन गया है
साहित्य सागर।
साहित्य सागर में,
तैरती हैं नौकाएं..
मानवता का सन्देश देती हुई
शिक्षा का प्रसार करती हुई
और उससे भी अधिक
आदमी को इंसान बनाती हुई।
शब्द बीज,
बहुत शक्तिशाली हैं..
आओ हम सब मिलकर लगाएं,
एक-एक शब्द बीज
रेगिस्तान में..
दलदली व बंजर भूमि में
पर्वत-पहाड़ों पर,
जंगलों में
और
खेत-खलिहानों में।
ताकि,
पैदा हो सकें
अनेक शब्द
जिससे भरपूर रहें
हमारी बुद्धि के गोदाम..
तथा मिटा सकें भूख
अपने अहंकार की,
झूठे स्वार्थ की
जातीय घृणा की,
सत्ता लोलुपता की
तथा,
निरंकुश आतंकवाद की।
शायद,
तब ही मनुष्य..
इंसान बन पाएगा
जब,
शब्दों की
सार्थक एवं पौष्टिक खुराक से
उसका पेट भर जाएगा..l
परिचय : अ.कीर्तिवर्धन का जन्म १९५७ में हुआ है। शामली (मुज़फ्फरनगर)से आपने प्राथमिक पढ़ाई करके बीएससी मुरादाबाद से किया। इसके अलावा मर्चेन्ट बैंकिंग, एक्सपोर्ट मैनेजमेंट और मानव संसाधन विकास में भी शिक्षा हासिल की है। १९८० से नैनीताल बैंक लि. की मुज़फ्फरनगर शाखा में सेवारत हैं। प्रकाशित पुस्तकों में-मेरी उड़ान,सच्चाई का परिचय पत्र,मुझे इंसान बना दो तथा सुबह सवेरे आदि हैं। राष्ट्र भारत(निबंधों का संग्रह)भी आपकी कृति है तो नरेंद्र से नरेंद्र की ओर प्रकाशनाधीन है। व्यक्तित्व व कृतित्व पर ‘सुरसरि’ का विशेषांक ‘निष्णात आस्था का प्रतिस्वर’ कीर्तिवर्धन भी आपकी उपलब्धि है।’सुबह सवेरे’ का मैथिलि में अनुवाद व प्रकाशन भी किया है। आपकी कुछ रचनाओं का उर्दू ,कन्नड़ ओर अँग्रेजी में भी अनुवाद अंग्रेजी में अनुवाद हुआ है। साथ ही अनेक रचनाओं का तमिल,अंगिका व अन्य भाषाओं में भी अनुवाद हो चुका है। आपको ८० से अधिक सम्मान, उपाधियाँ और प्रशस्ति-पत्र मिले हैं। विद्यावाचस्पति,विद्यासागर की उपाधि भी इसमें है। आप सेवा के तहत ट्रेड यूनियन लीडर सहित अनेक संस्थाओं से जुड़े हुए हैं।
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Wed Mar 22 , 2017
मेरी प्यारी-प्यारी मां, सब रिश्तों से न्यारी मां। जन्म दिया इसने मुझको, मुझको पाला-पोसा है.. लाख गलतितों पर भी, कभी न दिल से कोसा है। मेरे सुख में हंसे-हंसाय, मेरे दुःख में रोती है.. कठिन मुसीबत में भी, कभी न धीरज खोती है। न तो ऐसी न तो वैसी, पूरी-पूरी […]
शब्दों से साहित्यिक निष्ठा तो निभायी जा सकती है मगर पेट नहीं भरता।