सुना है ज़माने के साथ लोग बदलते हैं
शहर में कुछ पीर आजकल भी रहते हैं
आँख भरके देखते हैं क़द्र न की जिसने
मचलते हैं क्यों इतना पूँछ के देखते हैं
चाँद से बढ़ कर रोशन सादगी जिनकी
हर दिन वो शान से बाहर निकलते हैं
हुजूम से परे उन पर निगाहें ठहर गई
तितलियाँ मँडरातीं हैं शायद महकते हैं
उतरे चेहरे सँवार के भी ख़ामोश बहुत
जहाँ भर की ख़ुशी आस पास रखते हैं
तिरे पीछे तिरि परछाँइयों से की बातें
चश्म हैराँ मिरि अक़्स कमाल करते हैं
मुंसिफ-ए-बहाराँ तिरि एक नज़र को
‘राहत’ तेरे कूचे से दिन रात गुजरते हैं
#डॉ. रूपेश जैन ‘राहत’