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जन्नते नजर की फिक्र में जिंदगी तमाम हो गई,
दर्द से सुकूँ नहीं मिला,नींद भी हराम हो गई।
देख भर लिया है ख्वाब में बस यही गुनाह कर दिया,
लोग मुझसे पूछने लगे-बात इतनी आम हो गई।
खुद ही शर्म आ रही मुझे रहमतों की मांगते दुआ,
क्या करूं ये मेरी बेबसी वक्त की गुलाम हो गई।
मौत के दिनों में आखिरी यह अजीब फैसला हुआ,
कल तलक जो और की रही,आज अपने नाम हो गई।
!
हसरतों के बावजूद भी हश्र तक नहीं पहुंच सके,
क्या सिला दिया नसीब ने,रास्ते में शाम हो गई।
आज जुदा हो के हम कहीं मिट गए होते जहान से,
सब्र है यही कि,शायरी रूह की कलाम हो गई॥
#डॉ.कृष्ण कुमार तिवारी ‘नीरव’
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