जनता के लिए जिस कवि ने सत्ता को सिंहासन खाली करने कहा
स्वतंत्र भारत में, वीर-रस, प्रगति चेतना और जन-चेतना को लेकर जो कविताई हिंदी के ‘दिनकर’ ने की वह अन्यतम है।
वे लिखते हैं :
“गौरव की भाषा नयी सीख, भिखमंगों की आवाज बदल !
सिमटी बाँहों को खोल गरुड़, उड़ने का अंदाज बदल !”
अपने इसी तेवर के कारण वे राष्ट्रकवि भी थे और जनकवि भी ; और इसलिए सत्ता के करीब भी रहे और जनता के दिलों में भी बने रहे । गेयता और ध्वन्यात्मकता की वजह से ही उनकी पंक्तियाँ आज तक दुहराई जाती हैं, यह मानना उनकी कविता की धुरी को नहीं देख पाने की वजह से हो सकता है जो कि “जन सरोकार” है , और कुछ नहीं ।
अपनी कविता ‘दिल्ली’ में वे लिखते हैं :
“मरघट में तू साज रही दिल्ली कैसे श्रृंगार?
यह बहार का स्वांग अरी इस उजड़े चमन में!”
ये व्यंग्यबाण दिनकर ही छोड़ सकते थे ।
सिमरिया घाट, बेगुसराय , बिहार में 23 सितंबर 1908 में जन्मे रामधारी सिंह ‘कविता’ के ‘दिनकर’ बने । उर्वशी के लिए ज्ञानपीठ, पद्म भूषण, साहित्य अकादमी सहित सभी बड़े सम्मानों से नवाजे गए पर उनके साहित्यिक अवदान को रेखांकित करते हुए हरिवंश राय बच्चन जी ने कहा था, “गद्य, पद्य, भाषा और हिंदी की सेवा के लिये उन्हें एक नहीं, चार ज्ञानपीठ मिलना चाहिए!”
कहीं पढ़ा था कि एक बार किसी ने दिनकर जी से पूछा, “आपकी कविता का रंग क्या है ?” प्रतिउत्पन्नमतित्व के धनी दिनकर ने छूटते ही कहा, “माटी और लहू को मिला दें, जो रंग बने, वही मेरी कविता का रंग है।” देखा जाए तो इस एक वाक्य में दिनकर ने अपने कवित्व को डिकोड करने का फॉर्मूला दे दिया था ।
उनके राष्ट्रवाद का परिचय कुछ इन पंक्तियों में मिलता है :
“जला अस्थियाँ बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गये पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल।”
इसी तरह, स्वतंत्रता से जो अपेक्षाएं थी जब वे पूरी नहीं हुईं और आमजन की गरीबी, दरिद्रता बनी रही तो मोहभंग में उन्होंने लिखा : “श्वानों को मिलता अन्न-वस्त्र , भूखे-बच्चे अकुलाते हैं ! माँ की हड्डी से चिपक-चिपक, जाड़े की रात बिताते हैं !”
राष्ट्र के ओज और पौरुष को ललकारते हुए वे लिखते हैं :
“रुग्ण होना चाहता कोई नहीं,
रोग लेकिन आ गया जब पास हो,
तिक्त ओषधि के सिवा उपचार क्या?
शमित होगा वह नहीं मिष्टान्न से।”
देखा जाए तो यही उनके काव्य का मूल स्वर है। कुछ इसी तरह के आवेग का प्रस्फुटन हम कृष्ण की चेतावनी में देखते हैं :
“बाँधने मुझे तो आया है,
जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?”
तो, उनकी चेतना विराट थी इसलिए वे इतना विपुल लेखन कर सके ।
यह सच है कि 20 वीं सदी में समय और समाज में सीधा-सीधा हस्तक्षेप करने वाले हिंदी के विरले कवियों में दिनकर पहली पंक्ति में हैं । इसी भाव को वे लिखते हैं :
“समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध ।
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा , उनका भी इतिहास ।।”
ख़ास बात यह कि ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ का आह्वान करने वाले दिनकर मानवता के लिए संघर्ष का तरीका भी बताते हैं :
“जीवन उसका नहीं जीवन उसका नहीं युधिष्ठिर ,जो उससे डरते हैं ।
यह उसका है ,जो कदम ठोक, निर्भय होकर लड़ते हैं ।”
और लड़ने में नैराश्य को हावी नहीं होने देना है । वे पूछते भी हैं , “थक कर बैठ गए क्या भाई, मंजिल दूर नहीं है ।”
जीवन के किसी भी प्रसंग पर अगर कविता की दो पंक्ति ढूंढनी हो, तो दिनकर को पढ़ें , मिल जाएगी । पुरुषार्थ का आह्वान करते हुए वे कहते हैं :
“पुरुष हो पुरुषार्थ कर उठो ,सफलता वर तुल्य कर उठो ।
अपुरुषार्थ भयंकर पाप है, उसमें न यश है, न प्रताप है।”
जो ठान लिया उसे पूरा करने की सीख देते हुए वे लिखते हैं:
“ जब नाव जल में छोड़ दी, तूफान में ही मोड़ दी ।
दे दी चुनौती सिंधु को फिर, धार क्या, मझधार क्या ?”
और, 24 अप्रैल, 1974 को तिरुपति में रश्मिरथी का पाठ कर वे अपनी दैहिक लीला छोड़ गए, लेकिन ‘कुरुक्षेत्र’, हुंकार, परशुराम की प्रतीक्षा या फिर ‘संस्कृति के चार अध्याय’ जैसी अपनी विविध साहित्य रूपी रश्मियों से हिंदी साहित्याकाश को सदा के लिए आलोकित कर गए ।
मातृभाषा उन्नयन संस्थान और समूचे हिंदी समाज की तरफ़ से हिंदी के दिनकर को विनम्र श्रद्धांजलि !
आपका ही,
कमल