किसे याद न होगा आज से लगभग पांच वर्ष पूर्व उस समय भाजपा अध्यक्ष और वर्तमान में केन्द्रीय गृहमंत्री श्री राजनाथ सिंह ने कहा, ‘एक समय भारत को सोने की चिड़िया कहा जाता था। आधुनिकता की चकाचौंध में सबकुछ खो गया है। मैं कहना चाहता हूं कि सबसे ज्यादा क्षति इस देश को पहुंची है तो वो है अंग्रेजी भाषा के कारण। लगता है हम अपनी भाषा और संस्कृति से ऊबते जा रहे है।’ उस समय राजनाथ जी के वक्तव्य को विपक्षी प्रवक्ता ने ढ़ोग बताया था। आरोप -प्रत्यारोप के दौर में भाषा की अस्मिता का सवाल दब गया था। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या आज स्थिति में बदलाव हुआ? आज माननीय राजनाथ जी का मत क्या है? यह इसलिए भी विचारणीय है क्योंकि हम ग्यारहवें विश्व हिंदी सम्मेलन की तैयारियों में लगे हैं।
दुनिया के शायद ही किसी अन्य देश में ऐसा हुआ हो कि स्वतंत्रता के इतने वर्षों बाद भी अपनी मातृभाषा के लिये संघर्ष करना पड़ा हो। न्यायालयों की कार्यवाही राजभाषा में करने की मांग को लेकर धरना दे देने वाले लोगों को जेल भेजा गया। हो। कहने को देश के संविधान में हिन्दी संघ की राजभाषा है तो राज्यों में वहाँ की मातृभाषा को राजभाषा का दर्जा प्राप्त है। हमारे कई राज्यों का गठन भी भाषा के आधार पर ही हुआ है परंतु देश व राज्यों की राजभाषा की स्थिति क्या है, यह कौन नहीं जानता?
क्या यह असत्य है कि इस स्थिति के लिए यदि कोई जिम्मेवार है तो वह हैं हमारे नेता जो वोट तो देश की भाषा में मांगते हैं लेकिन सत्ता की कुर्सी तक पहुंचकर नौकरशाही के दबाव में आकर विदेशी भाषा के भक्त बन जाते हैं। यह प्रश्न आखिर कब तक मौन रहेगा कि ऐसा दबाव क्या है कि संयुक्त राष्ट्र संघ के मंच पर हिन्दी में भाषण देकर राष्ट्र का गौरव बढ़ाने वाले स्वनाम धन्य नेता भी सत्ता के शिखर पर पहुंचने के बाद बेबस हो जाते हैं?
यहां हमारा उद्देश्य राजनीति की तर्क-कुतर्क की परंपरा में भाषा के सवाल को उलझाने का नही, बल्कि भाषा और राष्ट्र की अस्मिता को रेखांकित करना है। यह कोई आश्चर्य नहीं कि ‘पक्ष से विपक्ष तक के विभिन्न विचारधाराओं के नेताओं में लाख मतभेदों के बावजूद इस बात पर एकमत हैं कि भारतीय भाषाओं की उपयोगिता समाप्त हो गई है; ज्ञान की भाषा अंग्रेजी ही हो सकती है। सांस्कृतिक बहुलवाद के पुरोधा भी भाषा के सवाल पर अंग्रेजी की खोल में सिमट जाते हैं।’
यह दुर्भाग्यपूर्ण अवधारणा तेजी से फल-फूल रही है कि अंग्रेजी ही देश में महत्व और सम्मान पाने का एकमात्र माध्यम है। शायद यही कारण है कि आज नर्सरी स्कूलों से विश्वविद्यालयों तक अंग्रेजी का बोलबाला है। उच्च शिक्षा की अधिकांश सामग्री अंग्रेजी में ही उपलब्ध है। भाषायी मूढ़ता के कारण अनेक प्रतिभाओं की असमय हत्या हो जाती है क्योंकि एक भाषा विशेष के नाम पर उन्हें अच्छे विश्वविद्यालयों अथवा व्यवसायिक कोर्स में प्रवेश से वंचित होना पड़ता हैं।
यह सत्य है कि वर्तमान युग में किसी एक भाषा से काम चलने वाला नहीं है। भारतीय भाषाओं में लिखने का मतलब यह नहीं है कि अंग्रेजी नहीं पढ़ने की कसम खा ली गई है। त्रिभाषी होना आज की आवश्यकता है लेकिन अपनी मातृभाषा और मातृभूमि की भाषा की कीमत पर नहीं। हिंदी के महत्व को दुनिया उसमझ रही है तभी तो पेंगुइन जैसे प्रकाशन भी हिंदी में पुस्तकें छापने लगे हैं। आज भी हिंदी के समाचारपत्र भारत में सवा्रधिक बिकते है।
विचारणीय है कि आज भर में 60 से 72 घंटों में अंग्रेजी सिखाने के दावें करने वाले बहुतायात में है तो इसका मतलब स्पष्ट है कि तीन महीने में जर्मन, फ्रेंच या रूसी भाषा सीखी जा सकता है तो अंग्रेजी को बचपन से ही लादना क्यों जरूरी है? आखिर क्यों नहीं विद्यालयों में भारतीय भाषाओं की शिक्षा दी जा रही है? हमारी अपनी भाषाओं में उपलब्ध ज्ञान की पूंजी को प्रेषित करने से संकोच क्यों?
इस प्रश्न का भी उत्तर तलाशना होगा कि हमारे शहरों जितने बड़े देशों में नोबल विजेता पैदा होते हैं लेकिन हमारे इतने विशाल देश में नहीं होते कहीं इसका कारण विदेशी भाषा की दीवानगी तो नहीं? यह सर्वमान्य तथ्य है कि विदेशी भाषा में हमारे ज्ञान की मौलिकता नहीं हो सकती बल्कि उसे महज रटा जा सकता है। कौन नहीं जानता कि विश्व विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन, आइंस्टीन, मैक्सप्लांक बहुत पढ़े लिखे नहीं थे। शेक्सपियर, तुलसीदास, महर्षि वेदव्यास आदि के पास कोई डिग्री नहीं थी, इन्होनें सिर्फ अपनी मातृभाषा में काम किया।
जहाँ तक निज भाषा और उसकी संवेदना का प्रश्न है, गांधीजी की पोती तारा भट्टाचार्य ने राजघाट पर आयोजित एक कार्यक्रम में कहा था कि ंबचपन में वह अपने दादा जी के साथ अंग्रेज राजकुमार से मिली तो उसने तारा से हाथ मिलाते हुए ‘हाऊ डू यू डू?’ कहा। बालिका तारा उसे बता रही थी ‘कल रात उसे बुखार था इसलिए वह…….’ तो अंग्रेज राजकुमार मुस्कुरा रहा था। इसपर गांधीजी ने तारा को आगे कुछ कहने से रोका। बाद में तारा ने पूछा कि आपने मुझे क्यों रोका तो गांधीजी ने उत्तर दिया, ‘हाऊ डू यू डू के जवाब में तुम्हे केवल फाइन ही कहना चाहिए था क्योंकि अंग्रेजी में केवल यही कहने की परम्परा है’ इसपर बालिका तारा ने बिगड़ते हुए कहा, ‘दादाजी, यह कैसी भाषा है- जिसमें आप पूछे गए प्रश्न का सही उत्तर देने के बजाय केवल ‘फाइन’ कहने को मजबूर है। नहीं मैं अंग्रेजी नहीं सीखना चाहती।’
स्पष्ट है कि भारतीय भाषाओं के प्रचार, प्रसार और निजी जीवन से रोजमर्रा के कामकाज में अपनी भाषाओं का अधिकाधिक उपयोग करना चाहिए।
काश हमारे नौकरशाहो को समझ आता कि मातृ भाषा/ देश भाषा में शिक्षा से – ‘प्रत्येक छात्र के कम से कम 5 से 6 वर्ष बचते। जिन्हें अंग्रेज़ी,चीनी, रूसी, जापानी, इत्यादि भाषाएं पढनी हो, वे इन बचे हुए वर्ष में सघन पढाई कर पाते। इसके कारण, केवल अंग्रेज़ी के ही नहीं, अन्य भाषाओं में होते शोधों के प्रति सारा राष्ट्र लाभान्वित हो जाता। पढाई के वर्ष बचने से, राष्ट्र की शिक्षा पर हो रहे अनावश्यक खर्च का कम से कम एक-तिहाई बचता जिसका अन्यत्र उपयोग किया जा सकता है। छात्र जल्दी तैयार होकर परिवार और समाज का सहयोगी बन जाता। उसके जीवन के उत्पादक वर्षों में वृद्धि होती। जन भाषा में चिन्तन का अभ्यास अन्वेषणों को प्रेरित करता। अपनी भाषाओं के सार्वजनिक चलन से अनगिनत लाभ होते, जिसकी कल्पना भी की नहीं जा सकती। हम अपनी भाषाओं को लेकर अनावश्यक हीन ग्रंथि से पीडित न होते।’
अगर हमारे शासक नेता व नौकरशाह इसे समझने में असमर्थ रहते है कि विश्व हिंदी सम्मेलनों को महज एक कर्मकाण्ड की संज्ञा ही दी जा सकती है। आज की आवश्यकता है कि राजनीति को राजनीति की भाषा में ही भाषा का पाठ पढ़ाया जाये। पर यक्ष प्रश्न यह है कि क्या समस्त भाषाप्रेमी दलगत राजनीति से ऊपर उठकर भारतीय भाषाओं के सम्मान के लिए अपने आकाओं से आंख से आंख मिलाने के लिए तैयार हैं?
#विनोद बब्बर