विरही मन

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vijaykant
मनमीत तुम हो अब गीत बने,
विरही मन में संगीत बने।
हर विटप शाख हर डाली पर,
कूकती मधु रस मतवाली पर।
हुए तरू पल्लव स्निग्ध नवल,
है तुर्श महक लिए आम्र बौर।
अल्हड़ मारूत चल फागुन का,
कम्पित करता आँचल का ठौर।
दूर तुमसे हुए कई मास हुए,
हूँ मन में मिलन की आस लिए।
शिशिर समीर से शिथिल-सा मन,
चाहे बसन्त में आलिंगन।
मोबाइल से छवि दर्शन बात प्रिये,
है बढ़ाती संतत संताप हिये।
तुम आए ना फागुन आया है,
कलियों पर भ्रमर लुभाया है।
हरा-भरा हुआ सब ओर चमन,
बस शुष्क एक मेरा विरही मन।
सरसों फूले  रंग पीत लिए,
हैं अलि अधरों पर गीत लिए।
झडे़ तरूवर में हुए पात नए,
हुए जब मन में उल्लास नए।
प्रति पल तेरा नख-शिख चिंतन,
करता  रहता अनुरागी मन।
 चित में चाहत अभिसार लिए,
 नवल वयस का प्यार लिए।
है आकुल तुझ पर करने अर्पण,
यह तन-मन जीवन-यौवन।
अब करो ना और विलम्ब सघन॥
             #विजयकान्त द्विवेदी 
परिचय : विजयकान्त द्विवेदी की जन्मतिथि ३१ मई १९५५ और जन्मस्थली बापू की कर्मभूमि चम्पारण (बिहार) है। मध्यमवर्गीय संयुक्त परिवार के विजयकान्त जी की प्रारंभिक शिक्षा रामनगर(पश्चिम चम्पारण) में हुई है। तत्पश्चात स्नातक (बीए)बिहार विश्वविद्यालय से और हिन्दी साहित्य में एमए राजस्थान विवि से सेवा के दौरान ही किया। भारतीय वायुसेना से (एसएनसीओ) सेवानिवृत्ति के बाद नई  मुम्बई में आपका स्थाई निवास है। किशोरावस्था से ही कविता रचना में अभिरुचि रही है। चम्पारण में तथा महाविद्यालयीन पत्रिका सहित अन्य पत्रिका में तब से ही रचनाएं प्रकाशित होती रही हैं। काव्य संग्रह  ‘नए-पुराने राग’ दिल्ली से १९८४ में प्रकाशित हुआ है। राष्ट्रीयता और भारतीय संस्कृति के प्रति विशेष लगाव और संप्रति से स्वतंत्र लेखन है।

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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