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कल दिवाली,
आज सुहाग पड़वा
कल भाईदूज,
जिन्दगी रिश्तों
की पहेली,
बूझ सके तो बूझ।
कहीं पकवानों
की मिठास,
कहीं मेलजोल
का मधुमास।
कहीं अहम की दीवारें
समृद्धि का सन्नाटा,
अकूत सम्पदा में
घाटे का गीला आटा।
कहीं फाका-मस्ती की रौनक,
मुफलिसी की मौज
अभावों में भी जारी
भावों का सहभोज।
कहीं रिश्तों की गर्माहट,
मेल-जोल के मेले
अंतर्मन की रंगोली,
आत्मीयता के झमेले।
कहीं तंगदिली की तंगी,
मन की गरीबी के खर्चे
लाखों के पैकेज पर भी
फीकी दीवाली के चर्चे।
खुशी या उल्लास
बाहर नहीं अंदर है,
कतरों-सी जिन्दगी
भी लगती समंदर है।
किसी और को नहीं,
तय खुद को करना है
जिन्दगी का घट रीता,
रखना या भरना है?
#डॉ. देवेन्द्र जोशी
परिचय : डाॅ.देवेन्द्र जोशी गत 38 वर्षों से हिन्दी पत्रकार के साथ ही कविता, लेख,व्यंग्य और रिपोर्ताज आदि लिखने में सक्रिय हैं। कुछ पुस्तकें भी प्रकाशित हुई है। लोकप्रिय हिन्दी लेखन इनका प्रिय शौक है। आप उज्जैन(मध्यप्रदेश ) में रहते हैं।
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Fri Oct 27 , 2017
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