दोहे

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trilok thakurela
मर्यादा के गढ़ गिरे,मानव हुआ स्वतंत्र।
रिश्ते नाते भूलकर,जपे स्वार्थ का मंत्र ll

मानव की कीमत नहीं,मँहगा हुआ पदार्थ।
भौतिकता के बोझ में,दबा हुआ परमार्थ ll

वातायन गायब हुए,घर-घर हुआ उदास।
गौरैया ने कर लिया,घर के बाहर वास ll

हाँफ रही है ज़िंदगी,हुआ तवे-सा गाँव।
कुछ रुपयों में बिक गई,वट,पीपल की छाँव ll

दिन बीते अनुराग के,रिश्ते हुए असार।
दुनिया की इस हाट का,मतलब ही आधार ll

घाट-घाट दूषित हुआ,वन-वन है बेहाल।
खग-मृग भय कातर हुए,फिर आओ गोपाल ll

नारी की पीड़ा घनी,फिर भी सहती मौन।
नारी के दुःख-दर्द को,कब समझेगा कौन ll

सदियों का सच था यही,प्रेम जगत का सारl
अब जीवन की दौड़ में,जीत रहे हथियार ll

यत्र-तत्र-सर्वत्र ही,बिखरे दूषित भाव।
नहीं बची वह आस्था,नहीं रहा वह चाव ll

ये थोथी घन गर्जना,ये बादल बिन पीर।
कैसे बदलेगी,कहो,धरती की तक़दीर ll

मानव के ईमान का,नहीं बचा कुछ मोल।
स्वार्थ-सिद्धि में रसवचन,बाकी बदले बोल ll

जीवन के हर मोड़ पर,राजनीति के रंग।
जाति-धर्म के नाम पर मचा हुआ हुड़दंग ll

आदर्शों के दिन गए,अपनेपन की रात।
जन-जन ने पैदा किए,ये कैसे हालात ll

आहत है संवेदना,ठगा हुआ-सा नेह।
उसे न कुछ मन की पड़ी,उसको प्यारी देह ll

नाजुक रही समाज में,संबंधों की डोर।
थामे रखिए यत्न से,हर रिश्ते का छोर ll

नारी जग सौंदर्य है,नारी ही जग मूल।
नारी बिन जीवन नहीं,रे नर कभी न भूल ll

हाथों में पतवार हों,मन में हों सद्भाव।
पंहुचेगी गंतव्य तक,जीवन रूपी नाव ll

खुशियों की भी उम्र है,है दुःख का भी छोर।
क्या घबराना रात से,फिर आएगी भोर ll

धीरज धर,बढ़,यत्न कर,मिट जाएगी पीर।
तपती बालू में किसे,मिला आज तक नीर ll

धीरे-धीरे समय ही,भर देता है घाव।
मंजिल पर जा पंहुचती,डगमग होती नाव ll
#त्रिलोकसिंह ठकुरेला

परिचय:  त्रिलोकसिंह ठकुरेला राजस्थान राज्य के जिला-सिरोही से हैंl आपकी जन्मतिथि १ अक्तूबर १९६६ तथा जन्म-स्थान नगला मिश्रिया(हाथरस)हैl श्री ठकुरेला रेलवे आबू रोड पर चिकित्सालय के सामने बंगले में रहते हैंl आपकी प्रकाशित कृतियों में -नया सवेरा(बाल साहित्य),काव्यगंधा(कुण्डलिया संग्रह) हैं जबकि अभी तक ६ किताबों का सम्पादन किया हैl सम्मान-पुरस्कार के रूप में ‘शम्भूदयाल सक्सेना बाल साहित्य पुरस्कार’,पंजाब द्वारा ‘विशेष अकादमी सम्मान’ और बिहार द्वारा ‘विद्या वाचस्पति’ सहित प्रयाग द्वारा ‘वाग्विदाम्वर सम्मान’ आदि प्राप्त हुए हैंl आपकी विशिष्टता कुण्डलियां छंद के उन्नयन,विकास और पुनर्स्थापना हेतु हैl आपकी रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी और रेडियो से होने के साथ ही पाठ्यक्रम में पाठ्य पुस्तक ‘गुंजन हिन्दी पाठमाला-३ में बाल कविता सम्मिलित हैl सम्प्रति से आप उत्तर पश्चिम रेलवे में अभियंत्री हैंl

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One thought on “दोहे

  1. आदरणीय त्रिलोकसिंह ठकुरेला जी सादर, सुंदर संदेशात्मक दोहे रचे हैं आपने.
    मर्यादा के गढ़ गिरे,मानव हुआ स्वतंत्र।
    रिश्ते नाते भूलकर,जपे स्वार्थ का मंत्र ll….सच है भौतिक युग ने मानव को सिर्फ अपने आप तक सीमित कर दिया है.इसलिए रिश्ते नातों की मिठास आजकल कम हो गई है.

    खुशियों की भी उम्र है,है दुःख का भी छोर।
    क्या घबराना रात से,फिर आएगी भोर ll……..यह भी खूब कहा है आपने.यही सत्यता है. खुशियाँ या दुःख सदैव नहीं रहते. इंसान हिम्मत और सब्र का दामन थाम कर रखे बस. सादर.

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