आंदोलन…तरीका बदलने की जरुरत

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tarkesh ojha

इसे संयोग ही मानता हूं कि,मध्यप्रदेश में जिस दिन पुलिस फायरिंग में छह किसानों की मौत हुई,उसी रोज कभी मध्य प्रदेश का हिस्सा रहे छत्तीसगढ़ से अपने गृहप्रदेश पश्चिम बंगाल लौटा था। मानवीय स्वभाव के नाते शुक्र मनाते हुए मैं खुद को भाग्यशाली समझने लगा कि,इस मुद्दे पर विरोधियों की ओर से आयोजित बंद की चपेट में आने से पहले ही मैं ट्रेन से अपने गृहनगर लौट आया। वर्ना क्या पता,रास्ते में किस प्रकार की तकलीफें सहनी पड़ती। यह घटना अभी राष्ट्रीय राजनीति को मथ ही रही थी कि,मेरे गृहप्रदेश पश्चिम बंगाल की शांत वादियों के लिए पहचाने जाने वाले दार्जिलिंग में भी इसी प्रकार की हिंसा भड़क उठी,वह भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी समेत तमाम कैबिनेट मंत्रियों की उपस्थिति में। देखते ही देखते अनेक वाहन आग के हवाले कर दिए गए। पथराव में अनेक पुलिसकर्मी घायल हुए,नौबत सेना बुलाने तक की आ गई। सरकारी तंत्र इतने बड़े आंदोलन की भनक तक न पा सका। ख़ुफ़िया तंत्र की विफलता की यही घटना तो शायद मध्यप्रदेश में भी हुई। इन घटनाओं के मद्देनजर मैं सोच में पड़ गया कि,आखिर यह कैसा आंदोलन है जो देखते ही देखते बेकाबू हो जाता है। पीड़ितों के लिए वाहनों को आग लगाना या पुलिस पर हमले करना क्या इतना आसान है। सोच-विचार के बीच राज्य व राष्ट्रीय राजनीति में आरोप-प्रत्यारोप का नया दौर शुरू हुआ। सत्तापक्ष इसे विरोधियों की साजिश करार दे रहा था,तो विरोधी इसे सरकार की विफलता करार देते हुए खुद को किसान व प्रदर्शनकारियों के हिमायती के तौर पर पेश करने में एड़ी-चोटी का जोर लगाने में लगे थे। जैसा इस प्रकार के हर हिंसक आंदोलन या धरना प्रदर्शन के बाद होता है। वैसे कलमकार के नाते मुझे अनेक ऐतिहासिक आंदोलनों के दौरान घटनास्थल का मुआयना करने का अवसर मिला है। ऐसे मौकों का गवाह बनकर हमेशा सोच में पड़ता रहा कि,क्या सचमुच ऐसे आंदोलन पीड़ित-मजबूर करते हैं। बेशक दुनिया में बड़े परिवर्तन और सुधार आंदोलनों से ही संभव हो पाए हैं ,लेकिन अराजक व हिंसक आंदोलन के पीछे  क्या सचमुच पीड़ितों की नाराजगी ही प्रमुख कारक होती है,या इसके पीछे कुछ और ताकतें भी सक्रिय रहती है। हालांकि, यह भी सच है कि देश-समाज में न राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप कभी खत्म होंगे और न धरना-प्रदर्शन और आंदोलन। किसी के चाहने-न चाहने से यह रुकने वाला नहीं,लेकिन ऐसे मामलों में दो उदाहरण दुनिया के सामने रखना चाहूंगा। मेरे क्षेत्र में एक बार पुलिस ने चोरी की बड़ी वारदात के सिलसिले में एक कुख्यात अपराधी को गिरफ्तार किया। बेशक अपराधी के गांव वाले या परिजनों के लिए यह मामूली बात थी,क्योंकि उसका जेल आना-जाना लगा रहता था। अपराधी को जीप में बिठाने के दौरान परिजनों ने पुलिस वालों से कहा भी कि,-ले तो जा रहे हैं …लेकिन ऐसी व्यवस्था कीजिएगा कि,बंदे को आसानी से जमानत मिल जाए। पुलिस ने प्रकरण आगे किया तो अदालत ने उसकी जमानत याचिका नामंजूर करते हुए आरोपी को १४ दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया। बस फिर क्या था,आरोपी के गांव में कोहराम मच गया। लोगों ने पास स्थित राष्ट्रीय राजमार्ग पर पथावरोध  कर यातायात जाम कर दिया। सूचना पर पुलिस पहुंची तो,उन्हें दौड़ा-दौड़ाकर पीटा। पुलिस वाहनों को तालाब में धकेल दिया गया। इसके बिल्कुल विपरीत वाकया मेरे पड़ोसी राज्य में हुआ। दरअसल एक छोटे से कस्बे के कुछ व्यापारी एक ऐसी ट्रेन का अपने स्टेशन पर ठहराव चाहते थे,जो उनके यहां नहीं रुकती थी। तय कार्यक्रम के तहत उन लोगों ने रेलवे ट्रैक पर धरना तो दिया,लेकिन पहले रोकी गई ट्रेन के यात्रियों से माफी मांगी। यात्रियों के खाने-पीने से लेकर बच्चों के दूध तक की भरपूर व्यवस्था पहले से करके रखी गई थी। उनके आंदोलन के तरीके से मार्ग में फंसे यात्री दंग रह गए। उन्हें प्रदर्शनकारियों से सहानुभूति हो गई। प्रदर्शनकारियों की बात मान ली गई,तो ट्रेन के रवाना होने के दौरान प्रदर्शनकारियों ने एक बार फिर तकलीफ के लिए यात्रियों से क्षमा याचना की। मेरे ख्याल से देश में इस दूसरे तरीके से धरना- प्रदर्शन और आंदोलन हो तो यह सभी के हित में होगा।

                                                         #तारकेश कुमार ओझा

लेखक पश्चिम बंगाल के खड़गपुर में रहते हैं और वरिष्ठ पत्रकार हैं

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डॉ. अर्पण जैन ‘अविचल’

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