कितनी जुदा है ये इंसानों की बस्ती

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अमीरी गरीबी में बटी ये इंसानों की बस्ती
कहीं कोई घर है अंधियारे में डूबा हुआ
कहीं किसी घर में अँधेरा है शौक का
कहीं जिंदगी ये बनी है दर्द सी
कहीं दर्द बनी है ये जिन्दगी
कितनी जुदा है ये इंसानों को बस्ती
भूख से व्याकुल कहीं रोती है आँखे
कहीं कोई खाने को कूड़े में बहाये
कहीं तप्ती धूप तन को अपने रंग में रंग कर ढके
कहीं धूप किसी के तन को छू भी ना पाये
आँखों को चुभती ये कैसी है तस्वीर
कितनी जुदा है ये इंसानों की बस्ती
ये सत्ता ये सिंघासन है किस काम के
ज़ब गरीबी से हर दिन गरीब मरे
उनके हक़ को ज़ब ये सत्ता ना दे पाये
फिर कैसे इस सत्ता को अच्छा कहाँ जाये
ये सत्ता तो अपना भला करने में है लगी
कितनी जुदा है ये इंसानों की बस्ती
क्यु है हालात दोनों के इतने जुदा
इक को गरीबी का है शाप मिला
एक को अमीरी का है अभिमान मिला
एक हर रोज है मर रहा पैसे के आभाव में जीते हुये
एक रोज है सांसे ले रहा पैसे के बलबूते
दोनों की दुनिया है क्यूँ इतनी अलग सी
कितनी जुदा है ये इंसानों की बस्ती
अमीरों की हस्ती , गरीबो की बस्ती ।

#ऋतू राय ऊषा

matruadmin

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