यातना गृह..!

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  यह पुरानी हवेली उसके लिये यातना गृह से कम नहीं है..मानों किसी बड़े गुनाह के लिये आजीवन कारावास की  कठोर सजा मिली हो ..  ऐसा दंड कि ताउम्र इस बदरंग हवेली के चहारदीवारी के पीछे उस वृद्ध को सिसकते एवं घुटते हुये जीवन व्यतीत करना है..यहाँ से तो उसकी अर्थी ही उठेगी..!
   एक छोटे से गंदे कमरे में उसे रखा गया है.. जहाँ बच्चे उसके लिये अनमने ढंग से सुबह-शाम की चाय और दो वक्त का भोजन रख आते हैं..पलट कर कभी कोई नहीं पूछता उससे कि दादा जी ! और कुछ चाहिए ..इसी मुट्ठी भर अन्न के लिये वह टकटकी लगाये रहता है,दरवाजे के चौखट की ओर ..
    चौकी पर पड़े-पड़े  यह बुड्ढा अब तो जब देखों खांसते रहता है.. सांसों की धौंकनी उसके वृद्ध काया को हिला कर रख देती है..
   लेकिन इससे कहीं अधिक पड़ोस वाले कमरे से पुत्रवधू का अपने पति को सम्बोधित कर  यह बुदबुदाना –  ”  यह बुड्ढा मरता भी नहीं, दिन भर खाता है और रात में खांसता रहता.. । “
 ऐसे अनेक व्यंग्य वचन उसके हृदय को बींध जाते हैं ..पके आम सी जिस वय में प्यार की आवश्यकता होती हैं..अपनों का यह दुत्कार उसके लिये असहनीय है..अश्रु बुंदों से आँखें उसकी भरी रहती हैं.. ।
  सच तो यह अघोषित “यातनागृह ”  उसका ही कर्मफल है..!नियति ने नहीं स्वयं इसका सृजन उसने अपनी जवानी के जोश में किया है..!
 कभी मेन रोड पर इतनी जमीनें थीं , उसके पास कि ” बाबू साहब ” कह लोग उसे सलामी दागा करते थें.. न जमींदारी थी उसके पास , न आय के साधन.. स्वयं अपने परिश्रम एवं पुरुषार्थ से उसने बिस्वा भर जमीन भी न खरीदी थी ..
   मित्र मंडली जो ऐसी मिली कि ” झूम बराबर झूम शराबी ”  का नृत्य देर रात तक इसी हवेली के अतिथि कक्ष में चला करता था..
   मुफ्त में दारू- मुर्गे की व्यवस्था हो तो यार-दोस्तों की क्या कमी है..?  अपने बैठके़ की रौनक देख बाबू साहब का सीना  दर्प से फुल जाया करता था,लेकिन तिजोरी तो खाली ही थी और गृहस्थी की गाड़ी भी खींचनी थी.. मेहनत कर कोई कारोबार भी उन्होंने नहीं कर रखा था..बाजार में उधार बढ़ने लगा और कोई तगादा लेकर घर के चौखट पर आए , तो उसकी यह गुस्ताख़ी माफ नहीं थी..।
    ऐसे में बाबू साहब के पास कर्ज से मुक्त होने के लिये एक ही विकल्प था , बाप- दादे की अचल संपत्ति ..कितनों की ही गिद्ध दृष्टि उसी पर तो थी..।
  बच्चे जब तक होश संभालते , बाबू साहब के हाथ से इस विशाल भूखंड का अधिकांश हिस्सा  फिसल गया .. सिर्फ यह हवेली जिसमें उनका परिवार था और समीप की एक जमीन ही शेष बची थी..पिता के नक्शेकदम पर पुत्र तो नहीं थें ..लेकिन बेरोजगार थें वे दोनों..हवेली के बड़े हिस्से को किराये पर दे दिया गया था साथ ही सड़क की ओर कुछ दुकानों का निर्माण , इन दोनों पुत्रों ने एक राजमिस्त्री के साथ मिलकर स्वयं मेहनत- मशक्कत कर किया था..कुल मिला कर यही दस-बारह हजार रुपये किराये से आ जाया करते थें और गृहस्थी की गाड़ी इसी किरायेदारी से बाबूसाहब का बड़ा लड़का खींच रहा था..   ऐसा लग रहा था कि इस पूर्व जमींदार परिवार के ये दोनों लड़के वक्त के ठोकर के साथ संभल गये हैं..।
    परंतु बाबूसाहब .. ?
 गरीबी और बेकसी की जिन्दा तस्वीर बन गये थें वे.. जेब खाली था फिर भी उनकी चटोरी जीभ कहाँ मानती थी .. घर पर उनके लिये दो वक्त की सूखी रोटी से अधिक कुछ भी न था .. बहू-बेटे जब भी सड़क के इस छोर से उस छोर तक की कीमती जमीन को निहारते .. उनका कलेजा बाहर आ जाता था..वे हाथ मलकर पछताते ..करोड़ों की ये सारी सम्पत्ति कभी उनके ही पूर्वजों की थी.. जिस पर उनके पिता ने गुलछर्रे उड़ाया था..अतः अर्जित किराए में से वे बाबू साहब को फूटी कौड़ी भी न देते थें..।
  उधर, दिन ढलते ही हवेली के बाहर ऊपर सड़क किनारे भोला मिष्ठान और शिवम चाट भंडर , रामू खटिक की गुमटी में रखा दशहरी और लगड़ा आम, चंदूभाई की कुल्फी एवं ठंडई की दुकान पर ग्राहकों को इन तमाम तरह के व्यंजनों का रसास्वादन करते देख बाबू साहब से तनिक भी सब्र न हो पाता था..वो कहा गया है न कि वृद्ध और बच्चे की प्रवृति एक समान होती है..  ललचाई आँखोंं से यह वृद्ध भी छड़ी का सहारा लिये,सड़क पर आ खड़ा होता था..इस उम्मीद से कि कोई पुराना दोस्त – यार दिख जाए और कुछ न सही तो पुराने  एहसानों को याद कर कोई छोला-समोसा ही पूछ ले..।
    पर हाल यह था कि जेब खाली क्या हुआ कि बाबू साहब को सामने देखते ही कभी उनसे दुआ-बंदगी करने वाले यूँ दिशा बदल लेते थें ..मानों काली बिल्ली रास्ता काटने खड़ी हो..
 उनकी भूख तो घर के दो वक्त की रोटी से मिट सकती थी..
पर चटोरी जीभ न मानी.. जिसने जीवन रस का भरपूर स्वाद लिया हो, उसकी रसना मानती भी तो कैसे..?
   आखिरकार एक दिन लज्जा का आवरण हट गया .. अपने निर्बल काया को लाठी के सहारे घसीटते हुये यह बूढ़ा आदमी
किसी पड़ोसी से दस रुपया का नोट मांग आया..
 जमींदार परिवार से होने का उसका दम्भ अब  दीनता में बदल चुका था..
   वह दिन भी आया ,जब बाबू साहब की इस नयी आदत से परेशान पड़ोसियों ने अपने घरों के दरवाजे बंद कर लिये..      फिर तो एक कुल्हड़ चाय के लिये भी किसी भले आदमी की तलाश इस बूढ़े व्यक्ति को करनी पड़ती थी..।
   इसी बीच पड़ोसी मोहल्ले के तीन युवकों ने बाबू साहब से नजदीकी बढ़ा ली.. कोई एक माह तक इन तीनों ने उनकी  रसना को कुछ इस तरह से तृप्त कर दिया कि उनका रोम- रोम इन युवकों को आशीर्वाद देने लगा..।
 और एक दिन हवेली से समीप की शेष बची एक मात्र जमीन का सौदा बिना अपने पुत्रों को बताये डेढ़ लाख रुपये में बाबू साहब ने इन युवा मित्रों से कर लिया..।
 जमीन की रजिस्ट्री के बाद ये युवक महीनों फिर न दिखें..उधर, बाबू साहब ने भी चार – छह महीने में ही सारा धन उड़ा दिया..।
  ठीक छह माह बाद एक दिन बाबू साहब की चीख -पुकार की आवाज सुन पड़ोसी उस पुरानी हवेली की तरफ दौड़े.. देखा कि दोनों पुत्र यमराज की तरह पिता के सीने पर चढ़ हुये हैं.. तब पड़ोसियों को भी पता चला कि उन तीनों युवकों ने जिस जमीन का गोपनीय सौदा बाबू साहब के साथ किया था..वह हवेली के बाहर वाला वह हिस्सा था.. जिसे छल से उन्होंने अपने नाम करवा लिया था..इसी पर उनके पुत्रों ने दुकानें बनवा उसे किराये पर दे रखी हैं .. जो इस परिवार की रोजी- रोटी का जरिया है..।
  युवा मित्रोंं द्वारा किये गये इतने बड़े धोखे से बाबू साहब से कहीं अधिक उनके पुत्र सदमे में थें.. और अपनी इसी चटोरी जीभ के कारण ही बाबू साहब आज भी इसी हवेली में अपने ही पुत्रों द्वारा बंधक बना कर रखें गये हैं.. उन्हें पागल घोषित कर दिया गया है..परिवार का हर सदस्य उनसे घृणा करता है.. इस यातना गृह से वे बाहर नहीं निकल सकते हैं.. उन पर चौकन्नी निगाहें रखी जाती है..।
   किसी मांगलिक समारोह में भी वे नहीं जा सकते.. भला पागल इंसान को कोई पूछता हैं..।
    अपनी ही हवेली में कैद अपराध बोध से भरे इस बूढ़े आदमी के विकल हृदय से एक ही आवाज आती है अब –     ” मेरा मर जाना ही अच्छा है..।”
  #शशि गुप्ता ‘व्याकुल पथिक’
   ( इस लेख के पात्र काल्पनिक नहीं हैं। डेढ़ माह पूर्व लिखा लेख है। अतः यह वृद्ध अभी जीवित है अथवा यातना गृह से उसे मुक्ति मिल गयी है। इसकी जानकारी नहीं है। )

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