क्या दया और करुणा

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vikram
क्या दया और करुणा दिल से धुल गए

जो मिटने मिटाने पे हैं तुल गए
कभी मंदिर कभी मस्जिद पर होती है चढा़ई
धर्मों में बंट गई है अब गांधी की लडा़ई
हम धर्मों में,जातों में ,समुदाय में अटके
भूलकर सभी आदर्श अपनी राह से भटके
बन शैतान के मानिंद हम बिल्कुल गए
कैसे ये फूट पड़ गया कैसे हुआ सबकुछ
पहले तो बड़ा प्रेम था भाता नहीं अबकुछ
सदियों से गंगा जमुनी थी वो खो गई तहजीब
कैसे ढूंढे़ं दिख रहा न कोई भी तरकीब
प्रेम के प्याले में कैसे विष घुल गए
अब भी यदि चेतें तो बिगडा़ नहीं ज्यादा
फिर से लाएं दिल में हम सौहार्द का वादा
अब वैमनस्यता का न यहां नर्क हो कोई
फिर सलमा और राधा में न फर्क हो कोई
बरसेंगे नभ से फूल जो हम मिलजुल गए
फिर से वही भाव लाएं शायद जो धुल गए
विक्रम कुमार 
 वैशाली(बिहार)

matruadmin

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